महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 4

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

नवाधिकद्विशततम (209) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवाधिकद्विशततम अध्याय: 209 भाग 4 का हिन्दी अनुवाद

मेघ, पृथ्‍वी, सस्‍य, काल, धर्म, कर्म और कर्म का अभाव –ये सब जिनके स्‍वरूप हैं, गुणों के भण्‍डाररूप वे श्‍यामवर्ण भगवान वासुदेव मुझपर प्रसन्‍न हों। जो अग्नि, चन्‍द्रमा, सूर्य, तारागण, ब्रह्रा, रूद्र, इन्‍द्र तथा योगियों के भी तेज को जीत लेते हैं, वे भगवान विष्‍णु मुझपर प्रसन्‍न हों। योग के आवास स्‍थान ! आपको नमस्‍कार है । सबके निवास स्‍थान, वरदायक, यज्ञगर्भ, सुनहरे रंगोंवाले पचयज्ञमय परमेश्‍वर ! आपको नमस्‍कार है। आप श्रीकृष्‍ण, बलभद्र, प्रद्युम्‍न और अनिरूद्ध –इन चार रूपोंवाले, परमधामस्‍वरूप, लक्ष्‍मीनिवास, परमपूजित, सबके आवासस्‍थान और प्रकृति के भी प्रवर्तक हैं । वासुदेव ! आपको नमस्‍कार है। आप अजन्‍मा हैं, अगम्‍य मार्ग हैं, निराकार हैं अथवा जगत् के सम्‍पूर्ण आकार आप ही धारण करते हैं, आप ही संहारकारी रूद्र हैं । आप प्रात:, सगव, मध्‍याह्रन, अपराह्रण और सायाह्रन – इन पाँच कालों को जाननेवाले हैं। ज्ञानसागर ! आपको नमस्‍कार हैं। जिन अव्‍यक्‍त परमात्‍मा से इस व्‍यक्‍त जगत् की उत्‍पत्ति हुई है, जो व्‍यक्‍त से परे और अविनाशी हैं, जिनसे उत्‍कृष्‍ट दूसरी कोई वस्‍तु नहीं हैं, उन भगवान विष्‍णु की मैं शरण में आया हूँ। प्रकृति और महतत्‍व – ये दोनों जड हैं । पुरूष चेतन और अजन्‍मा हैं । इन दोनों क्षर और अक्षर पुरूषों से जो उत्‍कृष्‍ट और विलक्षण हैं, उन भगवान पुरूषोतम की मैं शरण लेता हूँ। ब्रह्रा और शिव आदि देवता जिन भगवान का सदा चिन्‍तन करते रहनेपर भी उनके स्‍वरूप के संबंध में किसी निश्‍चयतक नहीं पहॅुच पाते, उन परमेश्‍वर की मैं शरण लेता हूँ। ज्ञानी और ध्‍यानपरायण जितेन्द्रिय महात्‍मा जिन्‍हें पाकर फिर इस संसार में नहीं लौटते हैं, उन भगवान श्री हरि की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो सर्वव्‍यापी परमेश्‍वर इस सम्‍पूर्ण जगत् को अपने एक अंश से धारण करके स्थित हैं, जो किसी इन्द्रिय विशेष के द्वारा ग्रहण नहीं किये जाते तथा जो निर्गुण एवं नित्‍य हैं, उन परमात्‍मा की मैं शरण में जाता हूँ। आकाश में जो सूर्य और चन्‍द्रमा का तेज प्रकाशित होता है तथा तारागणों की जो ज्‍योति जगमगाती रहती हैं, वह सब जिनका ही स्‍वरूप हैं, वे परमात्‍मा मुझपर प्रसन्‍न हों। जो समस्‍त गुणों के आ‍दि कारण और स्‍वयं निर्गुण हैं, आदि पुरूष, लक्ष्‍मीवान्, चेतन, अजन्‍मा, सूक्ष्‍म, सर्वव्‍यापी तथा योगी हैं, वे महात्‍मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्‍न हों। जो अव्‍यक्‍त सबके अधिष्‍ठाता, अचिन्‍त्‍य और सत्-असत् से विलक्षण हैं, आधाररहित एवं प्रकृति से श्रेष्‍ठ हैं, वे महात्‍मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्‍न हों। जो जीवात्‍मारूप से पाँच ज्ञानेन्द्रियरूपी मुखों द्वारा शब्‍द आदि पाँच विषयों का उपभोग करते हैं तथा स्‍वयं महान् होकर भी जो गुणों का अनुभव करते हैं, वे महात्‍मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्‍न हों। सर्वस्‍वरूप परमेश्‍वर ! आपको सब ओर से नमस्‍कार हैं, आपके सब ओर नेत्र, मस्‍तक और मुख हैं । निर्विकार परमात्‍मन् ! आपको नमस्‍कार है ।आप प्रत्‍येक क्षेत्र (शरीर) मे साक्षीरूप से स्थित हैं। इन्द्रियातीत परमेश्‍वर ! आपको नमस्‍कार है । व्‍यक्‍त लिंगों द्वारा आपका ज्ञान होना असम्‍भव है । संसार में जो आपको नहीं जानते, वे जन्‍म–मृत्‍यु के चक्‍कर में पड़े रहते हैं। जो काम और क्रोध से मुक्‍त, राग-द्वेषसे रहित तथा आपके अनन्‍य भक्‍त हैं, वे ही आपको जान पाते हैं। जो विषयों के नरक में पड़े हुए द्विज हैं, वे आपको नहीं जानते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।