महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 212 श्लोक 18-33

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द्वादशाधिकद्विशततम (212) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद

अत: विवेकी पुरूष को चाहिये कि वह अज्ञानजनित दोषों की भली भाँति परीक्षा करे तथा उस अज्ञान से उत्‍पन्‍न हुए दु:ख और अहंकार को त्‍याग दे।पंचमहाभूत इन्द्रियाँ, शब्‍द आदि गुण, सत्‍व, रज और तम तथा लोकपालों सहित तीनों लोक यह सब कुछ अहंकार में ही प्रतिष्ठित है। जैसे इस जगत् में नियत काल यथासमय ऋतु सम्‍बन्‍धी गुणों को प्रकट कर दिखाता है, उसी प्रकार समस्‍त प्राणियोंमें अहंकार को ही उनके कर्मों का प्रवर्तक जानना चाहिये। अहंकार सात्त्विक, राजस और तामस तीन प्रकार का होता है । तमोगुण मोह में डालनेवाला तथा अन्‍धकार के समान काला है । उसे अज्ञान से उत्‍पन्‍न हुआ समझना चाहिये । प्रीति उत्‍पन्‍न करनेवाले भाव सात्त्विक है और दु:ख देनेवाले राजस । इस प्रकार इन समस्‍त त्रिविध गुणों का स्‍वरूप जानना चाहिये। अब मैं तुम्‍हें सत्‍तगुण, रजोगुण और तमोगुण के कार्य बताता हूँ, सुनो । प्रसन्‍नता, हर्षजनित प्रीति, संदेह का अभाव, धैर्य और स्‍मृति –इन सबको सत्‍वगुण के कार्य समझो । काम, क्रोध, प्रमाद, लोभ, मोह, भय, क्‍लान्ति, विषाद, शोक, अप्रसन्‍नता, मान, दर्प और अनार्यता – इन्‍हें रजोगुण और तमोगुण के कार्य समझना चाहिये। इनके तथा ऐसे ही दूसरे दोषों के बड़े-छोटे का विचार करके फिर इस बात की परीक्षा करे कि इनमें से एक-एक दोष मुझमें है या नहीं । यदि है तो कितनी मात्रा में है (इस तरह विचार करते हुए सभी दोषों से छूटने का प्रयत्‍न करें। युधिष्ठिर ने पूछा – पितामह ! पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने किन-किन दोषों का मन के द्वारा त्‍याग किया है और किन्‍हें बुद्धि के द्वारा शिथिल किया है?कौन दोष बांरबार आते हैं और कौन मोहवश फल देने में असमर्थ से प्रतीत होते है ? विद्वान् पुरूष अपनी बुद्धि तथा युक्तियों द्वारा किन दोषों के बलाबल का विचार करे । तात ! पितामह ! यह मेरा संशय है । आप मुझसे इसका विवेचन कीजिये। भीष्‍मजी ने कहा-राजन् ! इन दोषों का मूल कारण है अज्ञान । अत: मूलसहित इन दोषों का नाश हो जानेपर मनुष्‍य का अन्‍त:करण विशुद्ध हो जाता है । जैसे लोहे की बनी हुई छेनी की धार लोहमयी सॉकल को काटकर स्‍वयं भी नष्‍ट हो जाती है, उसी प्रकार शुद्ध हुई बुद्धि तमोगुणजनित सहज दोषों को नष्‍ट करके उनके साथ ही स्‍वयं भी शान्‍त हो जाती है। यद्यपि रजोगुण, तमोगुण तथा काम, मोह आदि दोषों से रहित शुद्ध सत्‍वगुण –ये तीनों ही देहधारियों की देह की उत्‍पत्ति के मूल कारण हैं, तथापि जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, उस पुरूष के लिये सत्‍वगुण ही समता का साधन है। अत: जितात्‍मा पुरूष को रजोगुण और तमोगुण का त्‍याग ही करना चाहिये । इन दोनों से छूट जानेपर बुद्धि निर्मल हो जाती है। अथवा बुद्धि को वश में करने के लिये शास्‍त्रविहित मन्‍त्रयुक्‍त यज्ञादि कर्म को कुछ लोग दोषयुक्‍त बताते है; परंतु वह मन्‍त्रयुक्‍त यज्ञादि धर्म भी निष्‍कामभाव से किये जानेपर वैराग्‍य का हेतु है । तथा शुद्ध धर्म–शम, दम आदिके निरन्‍तर पालन में भी वही निमित्‍त बनता है। मनुष्‍य रजोगुण के अधीन होनेपर उसके द्वारा भाँति-भाँति के अधर्मयुक्‍त एवं अर्थयुक्‍त कर्म करने लगता है, तथा वह सम्‍पूर्ण भोगों का अत्‍यन्‍त आसक्तिपूर्वक सेवन करता है । तमोगुण द्वारा मनुष्‍य क्रोध और क्रोधजनित कर्मों का सेवन करता हैं, हिंसात्‍मक कर्मों में उसकी विशेष आसक्ति हो जाती है, तथा वह हर समय निद्रा-तन्‍द्रासे घिरा रहता है। सत्‍वगुण में स्थित हुआ पुरूष शुद्ध सात्त्विक भावों को ही देखता और उन्‍हीं का आश्रय लेता है । वह अत्‍यन्‍त निर्मल और कान्तिमान् होता है ।उसमें श्रद्धा और विद्या की प्रधानता होती है। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्‍ण सम्‍बन्‍धी अध्‍यात्‍म कथन विषयक दो सौ बारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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