महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 1

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द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम (222) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 1 का हिन्दी अनुवाद

सनत्‍कुमार जी का ऋषियों को भगवत्‍स्‍वरूप का उपदेश देना

युधिष्ठिर ने पूछा – राजन् ! जगत् में कुछ विद्वान् जड और चेतन अथवा प्रकृति और पुरूष दो तत्‍वों का प्रतिपादन करते हैं । कुछ लोग जीव, ईश्‍वर और प्रकृति इन तीन तत्‍वों का वर्णन करते हैं और कितने ही विद्वान् अनेक तत्‍वों का वर्णन करते हैं और कितने ही विद्वान् अनेक तत्‍वों का निरूपण करते रहते हैं; अत: कहीं न विश्‍वास किया जा सकता है, न अविश्‍वास । इसके सिवा वह परब्रह्रा परमात्‍मा दिखायी नहीं देता है । नाना प्रकार के शास्‍त्र हैं और भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार से उनका वर्णन किया गया है; इसलिये पितामह ! मैं किस सिद्धान्‍त का आश्रय लेकर रहॅू, यह मुझे बताइये। भीष्‍मजी ने कहा – राजन् ! शास्‍त्रों के विचार में प्रभावशाली सभी महात्‍मा अपने-अपने सिद्धान्‍त के प्रतिपादन में स्थित हैं । ऐसे पण्डित इस जगत् में बहुत हैं; परंतु उनमें वास्‍तव में कौन तत्‍व को जाननेवाला विद्वान् है और कौन शास्‍त्रचर्चा में पण्डित है ? यह कहना कठिन है । सबके तत्‍व को भलीभॉति समझकर जैसी रूचि हो, उसी के अनुसार आचरण करे । इस विषय में एक प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध है । एक समय बहुत से भावित्‍मा मुनियों का इसी विषय को लेकर आपस में बड़ा भारी वाद-विवाद हुआ था । हिमालय पर्वत के पार्श्‍वभाग में कठोर व्रत का पालन करनेवाले छ: हजार ऋषियों की एक बैठक हुई थी । उनमें से कुछ लोग इस जगत् को ध्रुव (सदा रहनेवाला) बताते थे, कुछ इसे ईश्‍वरसहित कहते थे और कुछ लोग बिना ईश्‍वर के ही जगत् की उत्‍पत्ति का प्रतिपादन करते थे । कुछ लोगों का मत यह था कि वास्‍तव में इस सम्‍पूर्ण जगत् की सत्‍ता है ही नहीं । इसी प्रकार दूसरे ब्राह्राणों में से कुछ लोग स्‍वभाव को, कितने ही कर्म को, बहुतेरे पुरूषार्थ को, दूसरे लोग दैव को और अन्‍य बहुत से लोग स्‍वभाव कर्म आदि सभी को जगत् का कारण बताते थे । वे नाना प्रकार के शास्‍त्रों के प्रवर्तक थे तथा अनेक प्रकार की सैकड़ों युक्तियों द्वारा अपने मत का पोषण करते थे ।
राजन् ! वे सभी ब्राह्राण स्‍वभाव से ही इस शास्‍त्रार्थ में एक दूसरे को पराजित करने की इच्‍छा करते थे । तदनन्‍तर उन वादी और प्रतिवादियों मे मूलभूत प्रश्‍न को लेकर बड़ा भारी वाद-विवाद खड़ा हो गया । उनमें से कितने ही क्रोध में भरकर एक दूसरे के पात्र, दण्‍ड, वल्‍कल, मृगचर्म और वस्‍त्रों को भी नष्‍ट करने लगे । तत्‍पश्‍चात् शान्‍त होनेपर वे सभी श्रेष्‍ठ ब्राह्राण म‍हर्षि वशिष्‍ठ बोले – ‘प्रभो ! आप ही हमें सनातन तत्‍व का उपदेश करें यह सुनकर वशिष्‍ठ ने उत्‍तर दिया – ‘विप्रवरो ! मैं उस सनातन तत्‍व के विषय में कुछ नहीं जानता’। तब वे सब ब्राह्राण एक साथ नारदमुनि से बोले – ‘महाभाग ! आप ही हमें सनातन तत्‍व का उपदेश करें; क्‍योंकि आप तत्‍ववेत्‍ता हैं’ । तब भगवान् नारद ने ब्राह्राणों से कहा- ‘विप्रगण ! मैं उस तत्‍व को नहीं जानता । हम सब लोग मिलकर कहीं और चलें । इस जगत् में कौन ऐसा विद्वान् है, जिसमें मोह न हो तथा जो उस अद्भूत अमृत तत्‍व के प्रतिपादन में समर्थ हो’ । यह बातचीत हो ही रही थी कि उन ब्राह्राणों ने किसी अदृश्‍य देवता की बात सुनी – ‘ब्राह्राणो ! सनत्‍कुमार के आश्रम पर जाकर पूछो । वे तुम्‍हें तत्‍वज्ञान का उपदेश करेंगे’ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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