महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 224 श्लोक 33-48
चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम (224) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इन्द्र ! एक नीच कुल में उत्पन्न हुआ मूढ़ मनुष्य जिसका जन्म दुराचार से हुआ है, अपने मन्त्रियों सहित सुखी जीवन बिताता देखा जाता है । उसकी भी वैसीही होनहार समझनी चाहिये। शक्र ! एक कल्याणमय आचार-विचार रखनेवाली सुरूपवती युवती विधवा हुई देखी जाती है और दुसरी कुलक्षणा और कुरूपा स्त्री सौभाग्यवती दिखायी देती है। वज्रधारी इन्द्र ! आज तो तुम इस तरह समृद्धिशाली हो गये हो और हमलोग जो ऐसी अवस्था में पहॅुच गये हैं, यह न तो हमारा किया हुआ है और न तुमने ही कुछ किया है। शतक्रतो ! इस समय मैं इस परिस्थिति में हॅू और जो कर्म मेरे इस शरीर से हो रहा है, यह सब मेरा किया हुआ नहीं है । समृद्धि और निर्धनता (प्रारब्ध के अनुसार) बारी-बारी से सब पर आती है । मैं देखता हॅू, इस समय तुम देवराज के पद पर प्रतिष्ठित हो । अपने कान्तिमान् और तेजस्वी स्वरूप से विराज रहे हो और मेरे ऊपर बारंबार गर्जना करते हो। परंतु यदि इस तरह काल मुझपर आक्रमण करके मेरे सिरपर सवार न होता तो मैं आज वज्र लिये होनेपर भी तुम्हें केवल मुक्के से मारकर धरतीपर गिरा देता। किंतु यह मेरेलिये पराक्रम प्रकट करनेका समय नहीं हैं; अपितु शान्त रहने का समय आया है । काल ही सबको विभिन्न अवस्थाओं में स्थापित करके सबका पालन करता है और काल ही सबको पकाता (क्षीण करता) है। एक दिन मैं दानवेश्वरों द्वारा पूजित था और मैं भी गर्जता तथा अपना प्रताप सर्वत्र फैलाता था । जब मुझ पर भी काल का आक्रमण हुआ है, तब दूसरे किस पर वह आक्रमण नहीं करेगा ?
देवराज ! तुमलोग जो बारह महात्मा आदित्य कहलाते हो, तुम सब लोगों के तेज मैंने अकेले धारण कर रखे थे। वासव ! मैं ही सूर्य बनकर अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी का जल ऊपर उठाता और मेघ बनकर वर्षा करता था । मैं ही त्रिलोकी को ताप देता और विधुत् बनकर प्रकाश फैलाता था। मैं प्रजा की रक्षा करता था और लुटरों को लूट भी लेता था । मैं सदा दान देता और प्रजा से कर लेता था । मैं ही सम्पूर्ण लोकों का शासक और प्रभु होकर सबको संयम नियम में रखता था। अमरेश्वर ! आज मेरी वह प्रभुता समाप्त हो गयी । काल की सेना से मैं आक्रान्त हो गया हॅू; अत: मेरा वह सब ऐश्वर्य अब प्रकाशित नहीं हो रहा है। शचीपति इन्द्र ! न मैं कर्ता हॅू, न तुम कर्ता हो और न कोई दूसरा ही कर्ता है । काल बारी-बारी से अपनी इच्छा के अनुसार सम्पूर्ण लोकों का उपभोग करता है। वेदवेता पुरूष कहते हैं कि मास और पक्ष काल के आवास (शरीर) हैं । दिन और रात उसके आवरण (वस्त्र) हैं । ऋतुऍ द्वार (मन-इन्द्रिय) हैं और वर्ष मुख है । वह काल आयुस्वरूप हैं। कुछ विद्वान् अपनी बुद्धि के बल से कहते हैं कि यह सब कुछ कालसंज्ञक ब्रह्रा है । इसका इसी रूप में चिन्तन करना चाहिये । इस चिन्तन के मास आदि उपर्युक्त पॉच ही विषय हैं । मैं पूर्वोक्त पॉच भेदों से युक्त काल को जानता हॅू। वह कालरूप ब्रह्रा अनन्त जल से भरे हुए महासागर के समान गम्भीर एवं गहन है । उसका कहीं आदि अन्त नहीं है । उसे ही क्षर एवं अक्षररूप बताया गया है।
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