महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 225 श्लोक 1-15
पञ्चर्विंशत्यधिकद्विशततम (225) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद, बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा
भीष्म जी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर इन्द्र ने देखा कि महात्मा बलि के शरीर से परम सुन्दरी तथा कान्तिमती लक्ष्मी मूर्तिमती होकर निकल रही हैं। पाकशासन भगवान् इन्द्र प्रभा से प्रकाशित होनेवाली उस लक्ष्मी को देखकर आश्चर्यचकित हो उठे । उनके नेत्र विस्मय खिल उठे । उन्होंने बलि से पूछा। इन्द्र बोले-बले ! यह वेणी धारण करनेवाली कान्तिमयी कौन सुन्दरी तुम्हारे शरीर से निकल कर खड़ी है ? इसकी भुजाओं में बाजूबंद शोभा पा रहे हैं और यह अपने तेज से उद् भासित हो रही है। बलि ने कहा- इन्द्र ! मेरी समझ में न तो यह असुरकुल की स्त्री है, न देवजाति की है और न मानवी ही है । तुम जानना चाहते हो तो इसी से पूछो अथवा न पूछो । जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो। तब इन्द्र ने पूछा – पवित्र मुसकानवाली सुन्दरी ! बलि के शरीर से निकलकर खडी हुई तुम कोन हो ? तुम्हारी चमक-दमक अद्भुत है । तुम्हारी वेणी भी अत्यन्त सुन्दर है । मैं तुम्हें जानता नहीं हॅू; इसलिये पूछता हॅू । तुम मुझे अपना नाम बताओ ।
सुभ्रु ! दैत्यराज को त्यागकर अपने तेज से मुझे प्रकाशित करती हुई इस प्रकार तुम कौन खड़ी हो ? मेरे प्रश्न के अनुसार अपना परिचय दो। लक्ष्मी बोली- मुझे न तो विरोचन जानता है और न उसका पुत्र यह बलि । लोग मुझे दु:सहा कहते हैं और कुछ लोग मुझे विधित्सा के नाम से भी जानते हैं। वासव ! जानकार मनुष्य मुझे भूति, लक्ष्मी और श्री भी कहते हैं । शक्र ! तुम मुझे नहीं जानते तथा सम्पूर्ण देवताओं को भी मेरे विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं है। इन्द्र ने पूछा – दु:सहे ! तुमने चिरकाल तक राजा बलि के शरीर में निवास किया है, अब क्या तुम मेरे लिये अथवा बलि के ही हित के लिये इनका त्याग कर रही हो ? लक्ष्मी ने कहा –इन्द्र ! धाता या विधाता किसी प्रकार भी मुझे किसी कार्य में नियुक्त नहीं कर सकते हैं; किंतु काल का ही आदेश मुझे मानना पड़ता है । वही काल इस समय बलि का परित्याग करने के लिये मुझे प्रेरित करने के निमित्त उपस्थित हुआ है । इन्द्र ! तुम उस काल की अवहलेना न करना। इन्द्र ने पूछा –वेणी धारण करनेवाली लक्ष्मी ! तुमने बलि का कैसे और किसलिये त्याग किया है ?
शुचिस्मिते ! तुम मेरा त्याग किस प्रकार नहीं करोगी ? यह मुझे बताओ। लक्ष्मी ने कहा- मैं सत्य, दान, व्रत, तपस्या, पराक्रम और धर्म में निवास करती हॅू । राजा बलि इन सबसे विमुख हो चुके हैं। ये पहले ब्राह्राणों के हितैषी, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे; किंतु आगे चलकर ब्राह्राणों के प्रति इनकी दोषदृष्टि हो गयी तथा इन्होने जूठे हाथ से घी छू दिया था। पहले ये सदा यज्ञ किया करते थे; किंतु आगे चलकर पीडि़त एवं मोहितचित्त होकर इन्होंने सब लोगो को स्वयं ही स्पष्टरूप से आदेश दिया कि तुम सब लोग मेरा ही यजन करो। वासव ! इस प्रकार इनके द्वारा तिरस्कृत होकर अब मैं तुममें ही निवास करूँगी । तुम्हें सदा सावधान रहकर तपस्या और पराक्रमद्वारा मुझे धारण करनाचाहिये।
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