महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 100-119
सप्तर्विंशत्यधिकद्विशततम (227) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘धन और भोग नष्ट हो जाते है । स्थान और ऐश्वर्य छिन जाता हैं तथा इस जीव जगत् के जीवन को भी काल आकर हर ले जाता है। ‘ऊँचे चढ़ने का अन्त है नीचे गिरना तथा जन्म का अन्त है मृत्यु । जो कुछ देखने में आता है, वह सब नाशवान् है, अस्थिर है तो भी इसका निरन्तर स्मरण रहना कठिन हो जाता है। ‘अवश्य ही तुम्हारी बुद्धि तत्व को जाननेवाली तथा स्थिर है, इसीलिये उसे व्यथा नहीं होती । मैं पहले अत्यन्त ऐश्वर्यशाली था, इस बात को तुम मन से भी स्मरण नहीं करते। ‘अत्यन्त बलवान् काल इस सम्पूर्ण जगत् पर आक्रमण करके सबको अपनी ऑच में पका रहा है । वह इस बात को नहीं देखता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा ? सब लोग कालाग्नि में झोंके जा रहे हैं, फिर भी किसी को चेत नहीं होता। ‘लोग ईर्ष्या, अभिमान, लोभ, काम, क्रोध, भय, स्पृहा, मोह और अभिमान में फॅसकर अपना विवेक खो बैठे हैं। ‘परंतु तुम विद्वान्, ज्ञानी और तपस्वी हो। समस्त पदार्थों के तत्व को जानते हो । काल की लीला और उसके तत्व को समझते हो । सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण हो । तत्व के विवेचन में कुशल, मन को वश में रखनेवाले तथा ज्ञानी पुरूषों के आदर्श हो । इसीलिये हाथ पर रक्खे हुए ऑवले के समान काल को स्पष्टरूप से देख रहे हो ।मेरा तो ऐसा विश्वास है कि तुमने अपनी बुद्धि से सम्पूर्ण लोकों का तत्व जान लिया है। ‘तुम सर्वत्र विचरते हुए भी सबसे मुक्त हो ।
कहींभी तुम्हारी आसक्ति नहीं है । तुमने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है; इसीलिये रजोगुण और तमोगुण तुम्हारा स्पर्श नहींकर सकते। ‘जो हर्षसे रहित, संताप से शून्य, सम्पूर्ण भूतों का सुहृद्, वैररहित और शान्तचित्त है, उस आत्मा की तुम उपासना करते हो। ‘तुम्हें देखकर मेरे मन मे दया का संचार हो आया है । मैं ऐेसे ज्ञानी पुरूष को बन्धन में रखकर उसका वध करना नहीं चाहता। ‘किसी के प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव न करना सबसे बड़ा धर्म है । तुम्हारे ऊपर मेरा पूर्ण अनुग्रह है । कुछ समय बीतने पर तुम्हें बॉधनेवाले ये वरूणदेवता के पाश अपने आप ही तुम्हें छोड़ देंगे। ‘महान् असुर ! जब प्रजाजनों का न्याय के विपरीत आचरण होनेलगेगा, तब तुम्हारा कल्याण होगा । जब पतोहू बूढ़ी सास से अपनी सेवा टहल कराने लगेगी और पुत्र भी मोहवश पिता को विभिन्न प्रकार के कार्य करने के लिये आज्ञा प्रदान करने लगेगा, शूद्र ब्राह्राणों से पैर धुलाने लगेंगे तथा वे निर्भय होकर ब्राह्राण जाति की स्त्री को अपनी भार्या बनाने लगेंगे, जब पुरूष निर्भय होकर मानवेतर योनियों में अपना वीर्य स्थापित करने लगेंगे, जब कॉसे के पात्र से ऊँच जाति और नीच जाति के लोग एक साथ भोजन करने लगेंगे एवं अपवित्र पात्रों द्वारा देवपूजा के लिये उपहार अर्पित किया जायगा, सारा वर्णधर्म जब मर्यादाशून्य हो जायगा, उस समय क्रमश: तुम्हारा एक-एक पाश (बन्धन) खुलता जायगा। ‘हमारी ओर से तुम्हें कोई भय नहीं है ।
तुम समय की प्रतीक्षाकरो और निर्बाध, स्वस्थचित्त एवं रोगरहित हो सुख से रहो’। बलि के ऐसा कहकर गजराज की सवारी पर चलनेवाले भगवान् शतक्रतु इन्द्र अपने स्थान को लौट गये । वे समस्त असुरों पर विजय पाकर देवराज के पद पर प्रतिष्ठित हुए थे और एकच्छत्रसम्राट् होकर हर्ष से प्रफुल्लित हो उठे थे। उस समय महर्षियों ने सम्पूर्ण चराचर जगत् के स्वामी इन्द्र का भलीभॉति स्तवन किया । अग्निदेव यज्ञमण्डप में देवताओं के लिये हविष्य वहन करने लगे और देवेश्वर इन्द्र भी सेवकों द्वारा अर्पित अमृत पीने लगे। सर्वत्र पहॅुचने की शक्ति रखनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्राणों ने उद्दीप्त तेजस्वी और क्रोधशून्य हुए देवेश्वर इन्द्र की स्तुति की; फिर वे इन्द्र शान्तिचित्त एवं प्रसन्न हो अपने निवास स्थान स्वर्गलोक में जाकर आनन्द का अनुभव करने लगे।
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