महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 17-31
सप्तर्विंशत्यधिकद्विशततम (227) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘पहले तो तुम अपने बाप-दादों के राज्य पर बैठकर तीनों लोकों के ईश्वर बने हुए थे । अब उस राज्य को शत्रुओं से छीन लिया; यह देखकर भी तुम्हें शोक क्यो नहीं होता है ? ‘तुम्हे वरूण के पाश से बॉधा गया, वज्र से घायल किया गया तथा तुम्हारी स्त्री और धन का भी अपहरण कर लिया गया; फिर भी बोलो, तुम्हें शोक कैसे नहीं होता है ? ‘तुम्हारी राज्यलक्ष्मी नष्ट हो गयी । तुम अपने धन वैभव से हाथ धो बैठे । इतने पर भी जो तुम्हें शोक नहीं होता है, यह दूसरों के लिय बड़ा कठिन है । तीनों लोकों का राज्य नष्ट हो जानेपर भी तुम्हारे सिवा दूसरा कौन जीवित रहने के लिये उत्साह दिखा सकता है ? ये तथा और भी बहुत सी कठोर बाते सुनाकर इन्द्र ने बलि का तिरस्कार किया । विरोचनकुमार बलि ने वे सारी बातें बडे़ आनन्दसे सुन लीं और मन में तनिक भी घबराहट न लाकर उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया। बलि ने कहा – इन्द्र ! जब मैं शत्रुओं अथवा काल के द्वारा भलीभॉति बन्दी बना लिया गया हॅू, तब मेरे सामने इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें बनाने से तुम्हें क्या लाभ होगा ?
पुरंदर ! मैं देखता हॅू, आज तुम व्रज उठाये मरे सामने खडे़ हो। किंतु पहले तुममें ऐसा करने की शक्ति नहीं थी । अब किसी तरह शक्ति आ गयी है। तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा अत्यन्त क्रूर वचन कह सकता है ? जो शक्तिशाली होकर भी अपने वश में पडे़ हुए अथवा हाथ में आये हुए वीर शत्रुपर दया करता है, उसे अच्छे लोग उत्तम पुरूष मानते है। जब दो व्यक्तियों में विवाद एवं युद्ध छिड़ जाता है, तब किसकी जीत होगी- इसका कोई निश्चय नहीं रहता है। उनमें से एक पक्ष विजयी होता है और दूसरे को पराजय प्राप्त होती है। इसलिये देवराज ! तुम्हारा स्वभाव ऐसा न हो, तुम ऐसा न समझ लो कि मैंने अपने बल और पराक्रम से ही समस्त प्राणियों के स्वामी मुझ बलि पर विजय पायी है। वज्रधारी इन्द्र ! आज जो तुम इस प्रकार राजवैभव से सम्पन्न हो अथवा हमलोग जो इस दीन दशा को पहॅुच गये हैं, यह सब न तो तुम्हारा किया हुआ है और न हमारा ही किया हुआ है। आज जैसे तुम हो, कभी मैं भी ऐसा ही था और इस समय जिस दशा में हमलोग पडे़ हुए हैं, कभी तुम्हारीभी वैसी ही अवस्था होगी; अत: तुम यह समझकर कि मैंने बड़ा दुष्कर पराक्रम कर दिखाया है, मेरा अपमान न करो। प्रत्येक पुरूष बारी-बारी से सुख और दु:ख पाता है ।
इन्द्र ! तुम भी अपने पराक्रम से नहीं, कालक्रम से ही इन्द्रपद को प्राप्त हुए हो। काल ही मुझे कुसमय की ओर ले जा रहा है और यह काल ही तुम्हें अच्छे दिन दिखा रहा है; इसलिये आज जैसे तुम हो, वैसा मैं नही हॅू और जैसे हमलोग हैं, वैसे तुम नहीं हो। माता-पिता की सेवा, देवताओं की पूजा तथा अन्य सद्गुणयुक्त सदाचार भी बुरे दिनों में किसी पुरूष के लिये सुखदायक नहीं होता है। काल से पीडि़त हुए मनुष्य को न विद्या, न तप, न दान, न मित्र और न बन्धु-बान्धव ही कष्टसे बचा पाते हैं।
« पीछे | आगे » |