महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 231 श्लोक 17-32

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एकत्रिंशदधिद्विशततम (231) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिंशदधिद्विशततम श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद

मनुष्‍यों का एक वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के बराबर है, उनके दिन-रात का विभाग इस प्रकार है । उत्तरायण उनका दिन है और दक्षिणायन उनकी रात्रि । पहले मनुष्‍यों के जो दिन-रात बताये गये हैं, उन्‍हीं की संख्‍या के हिसाब से अब मैं ब्रह्रा के दिन-रात का मान बताता हॅू । साथ ही सत्‍ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग – इन चारों युगों की वर्ष संख्‍या भी अलग-अलग बता रहा हॅू । देवताओं के चार हजार वर्षों का एक सत्‍ययुग होता है । सत्‍ययुगमे चार सौ दिव्‍यवर्षो की संध्‍या होती है और उतने ही वर्षो का एक संध्‍यांश भी होता है (इस प्रकार सत्‍ययुग अड़तालीस सौ दिव्‍य वर्षो का होता है । संध्‍या और संध्‍यांशों सहित अन्‍य तीन युगों में यह (चार हजार आठ सौ वर्षो की) संख्‍या क्रमश:एक-एक चौथाई घटती जाती है[१] ये चारो युग प्रवाहरूप से सदा रहनेवाले सनातन लोकों को धारण करते हैं । तात ! युगात्‍मक काल ब्रह्रावेत्‍ताओं के सनातन ब्रह्रा का ही स्‍वरूप है । सत्‍ययुग में सत्‍यऔर धर्म के चारों चरण मौजूद रहते हैं उस समय कोई भी धर्मशास्‍त्र अधर्म से संयुक्‍त नहीं होता; उसका उत्‍तम रीति से पालन होता है । अन्‍य युगों में शास्‍त्रोक्‍त धर्म का क्रमश: एक-ए चरण क्षीण होता जाता है और चोरी, असत्‍य तथा छल-कपट आदि के द्वारा अधर्म की वृद्धि होने लगती है । सत्‍ययुग के मनुष्‍य नीरोग होते हैं । उनकी सम्‍पूर्ण कामनाऍ सिद्ध होती हैं तथा वे चार सौ वर्षो की आयुवाले होते है । त्रेतायुग आनेपर उनकी आयु एक चौथाई घटकर तीन सौ वर्षों की रह जाती है । इसी प्रकार द्वापर में दो सौ और कलियुग में सौ वर्षों की आयु होती है । त्रेता आदि युगों में वेदों का स्‍वाध्‍याय और मनुष्‍यों की आयु घटने लगती है, ऐसा सुना गया है । उनकी कामनाओं की सिद्धि में भी बाधा पड़ती है और वेदाध्‍ययन के फल में भी शून्‍यता आ जाती है । युगों के ह्रास के अनुसार सत्‍ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग मे मनुष्‍यों के धर्म भी भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के हो जाते है। सत्‍ययुग में तपस्‍या को ही सबसे बड़ा धर्म माना गया है । त्रेता में ज्ञान को ही उत्‍तम बताया देवताओं के बारह हजार वर्षो का एक चतुर्युग होता है; यह विद्वानों की मान्‍यता है । एक सहस्‍त्र चतुर्युग को ब्रह्रा का एक दिन बताया जाता है । इतने ही युगों की उनकी एक रात्रि भी होती है । भगवान् ब्रह्रा अपने दिन के आरम्‍भ में संसार की सृष्टि करते हैं और रात में जब प्रलय का समय होता है, तब सबको अपने में लीन करके योगनिद्रा का आश्रय ले सो जाते हैं; फिर प्रलय का अन्‍त होने अर्थात् रात बीतने पर वे जाग उठते हैं । एक हजार चतुर्युग का जो ब्रह्रा का एक दिन बताया गया है और उतनी ही बड़ी जो उनकी रात्रि कही गयी है, उसको जो लोग ठीक-ठीक जानते हैं, वे ही दिन और रात अर्थात् कालतत्‍व को जानने वाले है । रात्रि समाप्‍त होने पर जाग्रत् हुए ब्रह्राजी पहले अपने अक्षय स्‍वरूप को माया से विकारयुक्‍त बनाते हैं फिर महत्‍तव को उत्‍पन्‍न करते हैं ।तत्‍पश्‍चात् उससे स्‍थूल जगत् को धारण करने वाले मन की उत्‍पत्ति होती है ।   इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुक का अनुप्रश्‍न विषयक दो सौ इकतीसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात् संध्‍या और संध्‍यांशों सहित त्रेतायुग छत्‍तीस सौ वर्षो का, द्वापर चौबीस वर्षो का और कलियुग बारह सौ वर्षो का होता है ।

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