महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 235 श्लोक 18-32
पचंस्त्रिंशदधिकद्विशततम (235) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
बुद्धिमान् और धीर मनुष्य प्रज्ञारूप नौकाओं द्वारा उस कालनद के पार हो जाते हैं । जो वैसी नौकाओं से रहित हैं, वे अविवेकी मनुष्य क्या करेंगे ? विद्वान् पुरूष जो कालनद से पार हो जाता है और अज्ञानी मनुष्य नहीं पार होता है, यह युक्तिसंगत ही है; क्योंकि ज्ञानवान् पुरूष सर्वत्र गुण और दोषों को दूर से ही देख लेता है । कामनाओं में आसक्त, चंचलचित्त, मन्दबुद्धि एवं अज्ञानी पुरूष संदेह में पड़ जाने के कारण कालनद को पार नहीं कर पाता तथा जो निश्चेष्ट होकर बैठ जाता है, वह भी उसके पार नहीं जासकता । जिसके पास ज्ञानमयी नौका नहीं है, वह मोहितचित्त मूढ़ मानव महान् दोष को प्राप्त होता है ।कामरूपी ग्राह से पीडि़त होने के कारण ज्ञान भी उसके लिये नौका नहीं बन पाता । इसीलिये बुद्धिमान् पुरूष को कालनद या भवसागर से पार होने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिये । उसका पर होना यही है कि वह वास्तव मे ब्राह्राण बन जाय अर्थात् ब्रह्राज्ञान प्राप्त करे । उत्तम कुल मे उत्पन्न हुआ ब्राह्राण अध्यापन, याजन और प्रतिग्रह –इन तीन कर्मों को संदेह की दृष्टि से देखे (कि कहीं इनमें आसक्त न हो जाऊँ ) और अध्ययन, यजन तथा दान – इन तीन कर्मों का अवश्य पालन करे । वह जैसे भी हो प्रज्ञा द्वारा अपने उद्धार का प्रयत्न करे, उस कालनद से पार हो जाय । जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् सम्पन्न हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियों पर विजय पा चुका है, उस विज्ञपुरूष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती । गृहस्थ ब्राह्राण क्रोध और दोष दृष्टि का त्याग करके पूर्वोक्त नियमों के पालन में संलग्न रहे ।नित्य पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान करे और यज्ञशिष्ठ अन्न का ही भोजन करे । श्रेष्ठ पुरूषों के धर्म के अनुसार चले और शिष्टाचार का पालन करे तथा ऐसी आजीविका प्राप्त करने की इच्छा करे, जिससे दूसरे लोगों की जीविका का हनन न हो और जिसकी लोक में निन्दा न होती हो । ब्राह्राण को वेद का विद्वान्, तत्वज्ञानी, सदाचारी और चतुर होना चाहिये । वह अपने धर्म के अनुसार कार्य करे, परंतु कर्म द्वारा संकरता न फैलावे अर्थात् स्वधर्म और परधर्म का सम्मिश्रण न करे । जो अपने धर्म के अनुसार कार्य करनेवाला, श्रद्धालु, मन और इन्द्रियों को संयम में रखनेवाला, विद्वान्, किसी के दोष न देखनेवाला तथा धर्म और अधर्म का विशेषज्ञ है, वह सम्पूर्ण दु:खों से पार हो जाता है । जो धैर्यवान, प्रमादशून्य, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, मनस्वी तथा हर्ष, मद और क्रोध से रहित है, वह ब्राह्राण कभी विषाद को नहीं प्राप्त होता है । यह ब्राह्राण की प्राचीनकाल से चली आनेवाली वृत्ति का विधान किया गया है । ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले ब्राह्राण को सर्वत्र सिद्धि प्राप्त होती है । जो मूढ़ है, वह धर्म की इच्छा रखकर भी अधर्म करता है अथवा शोकमग्न सा होकर अधर्मतुल्य धर्म का सम्पादन करता है ।मूर्ख या अविवेकी मनुष्य नजानने के कारण ‘मैं धर्म कर रहा हॅू’ ऐसा समझकर अधर्म करता है और अधर्म की इच्छा रखकर धर्म करता है, इस प्रकार अज्ञानपूर्वक दोनों तरह के कर्म करनेवाला देहधारी मनुष्य बारंबार जन्म लेता और मरता है ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुक देव का अनुप्रश्नविषयक दो सौ पैंतीसवॉ अध्याय पूरा हुआ ।
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