महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 236 श्लोक 9-18

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षटत्रिंशदधिकद्विशततम (236) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षटत्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 9-18 का हिन्दी अनुवाद


यह योग एक सुन्‍दर रथ है ।धर्म ही इसका पिछला भाग या बैठक है । लज्‍जा आवरण है । पूर्वोक्‍त उपाय और अपाय इसका कूबर है । अपानवायु धुरा है । प्राणवायु जूआ है । बुद्धि आयु है । जीवन बन्‍धन है । चैतन्‍य बन्‍धुर है । सदाचार ग्रहण इस रथ की नेमि हैं । नेत्र, त्‍वचा, घ्राण और श्रवण इसके वाहन हैं । प्रज्ञा नाभि है । सम्‍पूर्ण शास्‍त्र चाबुक है । ज्ञान सारथि है । क्षेत्रज्ञ (जीवात्‍मा) इस पर रथी बनकर बैठा हुआ है । यह रथ धीरे-धीरे चलनेवाला है । श्रद्धा और इन्द्रियदमन इस रथ के आगे-आगे चलनेवाले रक्षक हैं । त्‍यागरूपी सूक्ष्‍म गुण इसके अनुगामी (पृष्‍ठ-रक्षक) हैं । यह मंगलमय रथ ध्‍यान के पवित्र मार्ग पर चलता है । इस प्रकार यह जीवयुक्‍त दिव्‍य रथ ब्रह्रालोक में विराजमान होता है । अर्थात् इसके द्वारा जीवात्‍मा परब्रह्रा परमात्‍मा के प्रप्‍त कर लेता है । इस प्रकार योगरथ पर आरूढ़ हो साधन की इच्‍छा रखनेवाले तथा अविनाशी परब्रह्रा परमात्‍मा को तत्‍काल प्राप्‍त करनेकी कामनावाले साधक को जिस उपाय से शीघ्र सफलता मिलती है, वह उपाय मैं बता रहा हॅू । साधक वाणीका संयम करके पृथ्‍वी, जल, तेज, वायु, आकाश, बुद्धि और अहंकार-सम्‍बन्‍धी सात धारणाओं को सिद्ध करता है । इनके विषयों (गन्‍ध, रस, रूप, स्‍पर्श, शब्‍द,अहंवृत्ति और निश्‍चय) से सम्‍बन्धित सात प्रधारणाऍ इनकी पार्श्‍ववतिर्नी एवं पृष्‍ठवर्तिनी हैं । साधक क्रमश: पृथ्‍वी, जल, तेज, वायु,आकाश, अहंकार और बुद्धि के ऐश्‍वर्य पर अधिकार कर लेता है । इसके बाद वह क्रमपूर्वक अव्‍यक्‍त ब्रह्रा का ऐश्‍वर्य भी प्राप्‍त कर लेता है ।[१] अब योगाभ्‍यास में प्रवृत्त हुए योगियों में से जिस योगी को ये आगे बताये जानेवाले पृथ्‍वीजय आदि ऐश्‍वर्य जिस प्रकार प्राप्‍त होते हैं; वह बताता हॅू तथा धारणापूर्वक ध्‍यान करते समय ब्रह्रा प्राप्ति का अनुभव करनेवाले योगी को जो सिद्धि प्राप्‍त होती है, उसका भी वर्णन करता हॅू । साधक जब स्‍थूल देह के अभिमान से मुक्‍त होकर ध्‍यान में स्थित होता है, उस समय सूक्ष्‍मदृष्टि से युक्‍त पड़ते हैं । प्रारम्‍भ में पृथ्‍वी की धारणा करते समय मालूम होता है कि शिशिरकालीन कुहेरे के समान कोई सूक्ष्‍म वस्‍तु सम्‍पूर्ण आकाश को आच्‍छादित कर रही है । इस प्रकार देहाभिमान से मुक्‍त हुए योगी के अनुभव का यह पहला रूप है । जब कुहरा निवृत्त हो जाता है, तब दूसरेरूप का दर्शन होता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पातजलयोगदर्शन में ‘देशबन्‍धश्चित्तस्‍य धारणा’ अर्थात् एक देश में चित्‍त को एकाग्र करना धारणा बतलाया गया है । साधक सर्वप्रथम पृथ्‍वी तत्‍व में चित्त कोलगावे । इस धारणा से उसका पृथ्‍वीतत्‍व पर अधिकार हो जाता है । फिर पृथ्‍वीतत्‍व को जलतत्‍व में विलीन करके जलतत्‍व की धारणा करे । इससे साधक जलतत्‍व का ऐश्‍वर्य प्राप्‍त कर लेता है । फिर जलतत्‍व को अग्नितत्‍व में विलिन करके अग्नितत्‍व की धारणा करे । इससे अग्नितत्‍व पर अधिकार हो जाता है ।तदनन्‍तर अग्नि को वायु में विलीन करके चित्त को वायुतत्‍व में एकाग्र करे । इससे साधक वायुतत्‍व पर प्रभुत्‍व प्राप्‍त कर लेता है । इसी प्रकार क्रमश: वायु को आकाश में और आकाश को मन में तथा मन को बुद्धि में लय करके उस-उस तत्‍व की धारणा करे । इस प्रकार धारणा के ये सात स्‍तर हैं ।अन्‍त में बुद्धि को अव्‍यक्‍त ब्रह्रा में विलीन कर देना चाहिये ।

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