महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 237 श्लोक 1-12
सप्तत्रिंशदधिकद्विशततम (237) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता और प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन
व्यास जी कहते हैं-वत्स ! धीर पुरूष को चाहिये कि वह विवेकरूप नौका का अवलम्बन लेकर भव-सागर में डूबता-उतराता हुआ अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति में अपनी परम शान्ति के लिये वास्तविक ज्ञान के आश्रित हो जाय । शुकदेवजी ने पूछा- पिताजी ! जिसके द्वारा मनुष्य जन्म और मृत्यु दोनों के बन्धन से छुटकारा पा जाता है, वह ज्ञान अथवा विद्या क्या है ? वह प्रवृत्तिरूप धर्म है या निवृत्तिरूप ? यह मुझे बताइये । व्यासजी ने कहा- जो यह समझता है कि यह जगत् स्वभाव से ही उत्पन्न है, इसका कोई चेतन मूल कारण नहीं है, वह अज्ञानी मनुष्य व्यर्थ तर्कयुक्त बुद्धिद्वारा हेतुरहित वचनों का बारंबार पोषण करता रहता है । जिनकी यह मान्यता है कि निश्चित रूप से वस्तुगत स्वभाव ही जगत् का कारण है-स्वभाव से भिन्न अन्य कोई कारण नहीं है, (किंतु इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध न होनेमारत्र हेतु से उनका यह मानना कि ईश्वर-जैसा कोई जगत् का कारण है ही नहीं,युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि) मॅूज के भीतर स्थित दिखायीन देनेवाली सींक क्या मॅूज को चीर डालनेपर उन्हें उपलब्ध नहीं होती ? अपितु अवश्य होती है (उसी प्रकार समस्त जगत् में व्याप्त परमात्मा यद्यपि इन्द्रियों द्वारा दिखायी नहींदेता तो भी उसकी उपलब्धि दिव्यज्ञान के द्वारा अवश्य होती है) । जो मन्दबुद्धि मानव इस नास्तिक मत का अवलम्बन करके स्वभावही को कारण जानकर परमेश्वर की उपासना से निवृत्तहो जाते हैं, वे कल्याणके भागी नहीं होते । नास्तिक लोग जो स्वभाववाद का आश्रय लेकर ईश्वर और अदृष्ट की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं, यह उनका मोहजनित कार्य है, स्वभाववाद मूढ़ों की कल्पना-मात्र हैं । यह मानवों को परमार्थ से वंचित करके उनका विनाश करने के लिये ही उपस्थित किया गया है । स्वभाव और परिभाव के तत्व का यह आगे बताया जानेवाला विवेचन सुनो । देखा जाता है कि जगत् में बुद्धिसम्पन्न चेतन प्राणियों द्वारा ही भूमि को जोतने आदि के कार्य, अनाज के बीजों का संग्रह तथा सवारी, आसन और गृहनिर्माण ये कार्य हो जाते तो कोई इनमें प्रवृत्त ही न होता । बेटा ! चेतन प्राणी क्रीडा के लिये स्थान और रहने के लिये घर बनाते हैं । वे ही रोगों को पहचानकर उनपर ठीक-ठीक दवा का प्रयोग करते हैं । बुद्धिमान् पुरूषों द्वारा ही इन सब कार्यों का यथावत् अनुष्ठान होता है (स्वभाव से–अपने-आप नहीं) । बुद्धि ही धन की प्राप्ति कराती है । बुद्धिसे ही मनुष्य कल्याण को प्राप्त होता है । एकसे लक्षणोंवाले राजाओं में भी जो बुद्धि में बढे़-चढे़ होते है, वेही राज्यका उपभोग और दूसरों पर शासन करते हैं । तात ! प्राणियों के स्थूल-सूक्ष्म या छोटे-बडे़ का भेद बुद्धि से ही जाना जाता है । इस जगत् में सब प्राणियों की सृष्टि विद्या से हुई है और उनकी परमगति विद्या ही है । संसार में जो नाना प्रकार के जरायुज, अण्डज, स्वदेज और उद्रिज्ज–ये चतुर्विध प्राणी हैं, उन सबके जन्म की ओर भी लक्ष्य करना चाहिये । स्थावर प्राणियों से जंगम प्राणियो को श्रेष्ठ समझना चाहिये । यह बात युक्तिसंगत भी है, क्योंकि उनमें विशेषरूप से चेष्टा देखी जाती है, इस विशेषता के कारण जंगम प्राणियों की विशिष्टता स्वत: सिद्ध है ।
« पीछे | आगे » |