महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 239 श्लोक 1-15

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एकोनचत्वाारिंशदधिकद्विशततम (239) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वाारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

ज्ञान का साधन और उसकी महिमा भीष्‍मजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! इस प्रकार महर्षि व्‍यास के उपदेश देने पर शुकदेवजी ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और मोक्षधर्म के विषय में पूछने के लिये उत्‍सुक होकर इस प्रकार कहा । शुकदेव ने पूछा – पिताजी ! प्रज्ञावान्, वेदवेत्ता, याज्ञिक, दोष-दृष्टि से रहित तथा शुद्ध बुद्धिवाला पुरूष उस ब्रह्रा को कैसे प्राप्‍त करता है, जो प्रत्‍यक्ष और अनुमान से भी अज्ञात है तथा वेद के द्वारा भी जिसका इदमित्‍थंरूप से वर्णन नहीं किया गया है । सांख्‍य एवं योग में तप, ब्रह्राचर्य, सर्वस्‍वका त्‍याग और मेधाशक्ति – इनमें से किस साधन के द्वारा तत्‍व का साक्षात्‍कार माना गया है ? यह आपसे मेरा प्रश्‍न है, आप मुझे कृपापूर्वक इस विषय का उपदेश दीजिये । मनुष्‍य मन और इन्द्रियों को जिस उपाय से और जिस तरह एकाग्र कर सकता है, उस विषय का आप विशद विवेचन कीजिये । व्‍यास जी ने कहा – बेटा ! विद्या, तप, इन्द्रियनिग्रह और सर्वस्‍वत्‍याग के बिना कोई भी सिद्धि नहीं पा सकता । सम्‍पूर्ण महाभूत विधाता की पहली सृष्टि है । वे समस्‍त प्राणी समुदाय में तथा सभी देहधारियों के शरीरों में अधिक से अधिक भरे हुए हैं । देहधारियों की देह का निर्माण पृथ्‍वी से हुआ है, चिकनाहट और पसीने आदि जल से प्रकट होते हैं, अग्नि से नेत्र तथा वायु से प्राण और अपान का प्रादुर्भाव हुआ है ।नाक, कान आदि के छिद्रों में आकाश तत्‍व स्थित है । चरणों की गति में विष्‍णु और बाहुबल (पाणि नामक इन्द्रिय) में इन्‍द्र स्थित हैं । उदर में अग्निदेवता प्रतिष्ठित हैं, जो भोजन चाहते और पचाते हैं । कानों में श्रवणशक्ति और दिशाऍ हैं तथा जिह्रा में वाणी और सरस्‍वती देवा का निवास है । दोनों कान, त्‍वचा, दोनों नेत्र, जिह्वा और पाँचवी नासिका-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियॉ हैं । इन्‍हें विषयानुभव का द्वार बतलाया गया है । शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध – ये पाँच इन्द्रियों के विषय हैं । इन्‍हें सदा इन्द्रियों से पृथक समझना चाहिये । जैसे सारथि घोडों को अपने वश में रखकर उन्‍हें इच्‍छानुसार चलाता है, इसी प्रकार मन इन्द्रियों को काबूमें रखकर उन्‍हें स्‍वेच्‍छा से विषयों की ओर प्रेरित करता है, परंतु हृदय में रहनेवाला जीवात्‍मा सदा उस मनपर भी शासनकिया गरता है । जैसे मन सम्‍पूर्ण इन्द्रियों का राजा और उन्‍हें विषयों की ओर प्रवृत्त करने तथा रोकनेमें भी समर्थ है, उसी प्रकार हृदयस्थित जीवात्‍मा भी मन का स्‍वामी तथा उसके निग्रह अनुग्रह में समर्थ है । इन्द्रियॉ, इन्द्रियों के रूप, रस आदि विषय, स्‍वभाव (शीतोष्‍ण धर्म) चेतना[१] मन, प्राण, अपान और जीव ये देहधारियों के शरीरों में सदा विद्यमान रहते हैं । शरीर भी वास्‍तव में सत्‍व अर्थात् बुद्धि का आश्रय नहीं हैं; क्‍योंकि पांचभौतिक शरीर तो उसका कार्य है तथा गुण, शब्‍द एवं चेतना भी बुद्धि के आश्रय (कारण) नहीं हैं; क्‍योंकि बुद्धि चेतना की सृष्टि करती है, परंतु बुद्धि त्रिगुणात्मिका प्रकृति को उत्‍पन्‍न नहीं करती; क्‍योंकि बुद्धि स्‍वयं उसका कार्य है । इस प्रकार बुद्धिमान् ब्राह्राण इस शरीर में पाँच इन्द्रिय, पाँच विषय, स्‍वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान और जीव-इन सोलह तत्‍वों से आवृत सत्रहवें परमात्‍मा का बुद्धि के द्वारा अन्‍त:करण में साक्षात्‍कार करता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्‍त:करण में जो ज्ञानशक्ति है, जिसके द्वारा मनुष्‍य सुख-दु:ख और समस्‍त पदार्थों का अनुभव करते हैं, जो कि अन्‍त:करण एक वृत्तिविशेष है, इसे ही ‘चेतना’ कहते हैं

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