महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 241 श्लोक 1-14

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एकचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (241) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकचत्वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

कर्म और ज्ञान का अन्‍तर तथा ब्रह्मा प्राप्ति के उपाय का वर्णन

शुकदेव ने पूछा – पिताजी ! वेद में ‘कर्म करो’ और ‘कर्म छोड़ो’– ये जो दो प्रकार के वचन मिलते हैं, उनके सम्‍बन्‍ध में मैं यह जानना चाहता हूं कि विद्या (ज्ञान) के द्वारा कर्म को त्‍याग देने पर मनुष्‍य किस दिशा में जाते हैं ? और कर्म करने से उन्‍हें किस गति की प्राप्ति होती है ? मैं इस विषय को सुनना चाहता हॅू, आप कृपापूर्वक मुझे यह बतावें । ये दोनों वचन एक दूसरे के विपरीत हैं, अत: प्रतिकूल परिणाम ही उत्‍पन्‍न कर सकते हैं। भीष्‍मजी कहते हैं – राजन् ! शुकदेवजी के इस प्रकार पूछने पर पराशरनन्‍दन भगवान् व्‍यास ने यों उत्‍तर दिया – ‘बेटा ! ये कर्ममय और ज्ञानमय मार्ग क्रमश: विनाशशील और अविनाशी हैं, मैं इनकी व्‍याख्‍या आरम्‍भ करता हूं। ‘वत्‍स ! ज्ञान से मनुष्‍य जिस दिशा को जाते हैं और कर्म द्वारा उन्‍हें जिस गति की प्राप्ति होती है, वह सब बताता हॅू, एकचित्‍त होकर सुनो । इन दोनों का अन्‍तर अत्‍यन्‍त गहन है। ‘धर्म है, ऐसा शास्‍त्र का उपदेश है, इसके विपरीत यदि कोई कहे कि धर्म नहीं है तो उसे सुनकर एक आस्तिक को जितना कष्‍ट होता है, उसके पक्ष के ही समान यह कर्म और विद्या का तारतम्‍यविषयक प्रश्‍न मेरे लिये क्‍लेशदायक है। ‘प्रवृत्तिलक्षण धर्म और निवृत्ति के उद्देश्‍य से प्रतिपादित धर्म, ये दो मार्ग हैं जहॉ वेद प्रतिष्ठित हैं। ‘सकामकर्म से मनुष्‍य बन्‍धन में पड़ता है और ज्ञान से मुक्‍त हो जाता है, अत: दूरदर्शी यति कर्म नहीं करते है। ‘कर्म करने से मनुष्‍य मृत्‍यु के पश्‍चात सोलह[१] तत्‍वों के बने हुए मूर्तिमान् शरीर को धारण करके जन्‍म लेता हैं; किन्‍तु ज्ञान के प्रभाव से जीव नित्‍य, अव्‍यक्‍त, अविनाशी परमात्‍मा को प्राप्‍त होता है। ‘अधूरे ज्ञान में आसक्‍त अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान को ही ज्ञान मानने वाले कुछ मनुष्‍य सकामकर्म की प्रशंसा करते हैं, इसीलिये वे भोगासक्‍त होकर बारंबार विभिन्‍न शरीरों मे आनन्‍द मानकर उनका सेवन करते हैं। ‘परंतु’ जो धर्म के तत्‍व को भलीभॉति समझकर सर्वोत्‍तम ज्ञान प्राप्‍त कर चुके हैं, वे कर्म की उसी तरह प्रशंसा नहीं करते हैं, जैसे प्रतिदिन नदी का पानी पीने वाले मनुष्‍य कुऍ का आदर नहीं करते हैं। ‘कर्म के फल हैं सुख-दु:ख और ज्ञान के द्वारा उन्‍हें उस परमपद की प्राप्ति होती है, जहां जाने से सदा के लिये शोक से मुक्‍त हो जाता है। ‘जहॉ जिसका फिर मृत्‍यु का कष्‍ट नहीं उठाना पड़ता, जहां जाने से फिर जन्‍म नहीं होता, जहां पुर्नजन्‍म का भय नहीं रहता तथा जहॉ जाकर मनुष्‍य फिर इस संसार में नहीं लौटता। ‘जहां बिना क्‍लेश के प्राप्‍त होने वाले और मिलकर कभी विलग न होने वाले, अव्‍यक्‍त, अचल, नित्‍य, अनिर्वचनीय तथा विकारशून्‍य उस परब्रह्मा परमात्‍मा का साक्षात्‍कार हो जाता है। ‘उस स्थिति को प्राप्‍त हुए मनुष्‍यों को सुख-दु:खादि द्वन्‍द्व, मानसिक संकल्‍प और कर्म संस्‍कार बाधा नहीं पहॅुचाते । वहां पहॅुचे हुए मानव सर्वत्र समानभाव रखते हैं, सबको मित्र मानते हैं और समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर रहते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पॉच इन्द्रियां, पॉच इन्द्रियों के विषय, स्‍वभाव (शीतोष्‍णदि धर्म), चेतना (ज्ञानशक्ति), मन, प्राण, अपान और जीव-ये सोलह तत्‍व पूर्व में 239 वें अध्‍याय के 13 वें श्‍लोक में बतला चुके हैं।

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