महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 243 श्लोक 14-29
त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततम (243) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
गृहस्थ पुरूष सदा अपनी ही स्त्री से प्रेम करे। इन्द्रियों का संयम करके जितेन्द्रिय बने । किसी के गुणों में दोष न ढॅूढे़ । वह ऋत्विज, पुरोहित, आचार्य, मामा, अतिथि, शरणागत, वृद्ध, बालक, वैद्य, जाति भाई,सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव, माता-पिता, कुटुम्ब की स्त्री, भाई, पुत्र, पत्नी, पुत्री तथा सेवक समूह के साथ कभी विवाद न करे । जो इन सबके साथ कलह त्याग देता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। इन से हार मानकर रहने वाला मनुष्य सम्पूर्ण लोकों पर विजय पाता है, इसमे संशय नहीं है । आचार्य ब्रह्मालोक का स्वामी है, पिता प्रजापतिलोक का ईश्वर है, अतिथि इन्द्रलोक के और ऋत्विज देवलोक के स्वामी है । कुटुम्ब की स्त्रियां अप्सराओं के लोक की स्वामिनी हैं और जाति-भाई विश्वदेव लोक के अधिकारी हैं । सम्बन्धी और बन्धु-बान्धव दिशाओं पर, माता और मामा पृथ्वी पर तथा वृद्ध, बालक और निर्बल रोगी आकाश पर अपना प्रभुत्व रखते हैं । इन सबको संतुष्ट रखने से उन-उन लोकों की प्राप्ति होती है। बड़ा भाई पिता के समान है । पत्नी और पुत्र अपने ही शरीर है तथा सेवकगण अपनी छाया के समान है । बेटी तो और भी अधिक दयनीय है। अत: इनके द्वारा कभी अपना तिरस्कार भी हो जाय तो सदा क्रोधरहित रहकर सहन कर लेना चाहिये । गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले विद्वान् पुरूष को निश्चिन्त होकर क्लेश और थकावट को जीतकर धर्म का निरन्तर पालन करते रहना चाहिये। किसी भी धर्मात्मा पुरूष को धन के लोभ से धर्मकर्मों का अनुष्ठान नहीं करना चाहिये । गृहस्थ ब्राह्माण के लिये जो तीन आजीविका की वृत्तियॉ बतायी गयी हैं, उनमें उत्तरोतर श्रेष्ठ एंव कल्याणकारिणी हैं। इसी प्रकार चारों आश्रम भी उत्तरोतर श्रेष्ठ कहे गये हैं । उन आश्रमों के जो शास्त्रोक्त नियम हैं, उन सबका उन्नति चाहने वाले पुरूष को पालन करना चाहिये। कुंडेभर अनाज का संग्रह करके अथवा अच्छशिल (अनाज के एक-एक दाने बीनने अथवा उस अनाज की बाली बीनने) के द्वारा अन्न का संग्रह करके ‘कापोतीवृत्ति’ का आश्रय लेने वाले पूजनीय ब्राह्माण जिस देश में निवास करते हैं, उस राष्ट्र की वृद्धि होती है। जो मन में तनिक भी क्लेश का अनुभव न करके गृहस्थ की इन वृत्तियों के सहारे जीवन निभाता है, वह अपनी दस पीढ़ी के पूर्वजों को तथा दस पीढ़ी तक आगे होने वाली संतानों को पवित्र कर देता है। उसे चक्रधारी श्रीविष्णु के लोक के सदृश उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है अथवा वह जितेन्द्रिय पुरूष को मिलने वाली श्रेष्ठगति प्राप्त कर लेता है। उदारचित्त वाले गृहस्थों को हितकार के स्वर्गलोक प्राप्त होता है । उनके लिये विमान सहित सुन्दर फूलों से सुशोभित परम रमणीय स्वर्ग सुलभ होता है, जिसका वेदों में वर्णन है। मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाले गृहस्थों के लिये स्वर्गलोक ही प्रतिष्ठा का स्थान नियत किया है । ब्रह्माजी ने गार्हस्थ आश्रम को स्वर्ग की प्राप्ति का कारण बनाया है; इसीलिये इसके पालन का विधान किया गया है । इस प्रकार क्रमश: द्वितीय आश्रम गार्हस्थ को पाकर मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। इस गृहस्थाश्रम के पश्चात तीसरा उससे भी श्रेष्ठ परम उदार वानप्रस्थ आश्रम है; जो शरीर को सुखाकर अस्थिचर्मावशिष्ट कर देने वाले तथा वन में रहकर तपस्यापूर्वक शरीर को त्यागने वाले वानप्रस्थियों का आश्रय है। यह गृहस्थों से श्रेष्ठतम माना गया हैं, अब इसके धर्म बताया हॅू, सूनो।
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