महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 245 श्लोक 13-27

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पञ्चचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (245) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद

जो जनसमुदाय को सर्प-सा समझकर उसके निकट जाने से डरता है, स्‍वादिष्‍ट भोजनजनित तृप्ति को नरक-सा मानकर उससे दूर रहता है और स्त्रियों को मुर्दों के समान समझकर उनकी ओर से विरक्त होता है, उसे देवता ब्रह्राज्ञानी मानते हैं । जो सम्‍मान प्राप्‍त होनेपर हर्षित, अपमानित होनेपर कुपित नहीं होता तथा जिसने सम्‍पूर्ण प्राणियों को अभयदान कर दिया है, उसे ही देवता लोग ब्रह्राज्ञानी मानते है। संन्‍यासी न तो जीवन का अभिनन्‍दन करे और न मृत्‍यु का ही ।जैसे सेवक स्‍वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार उसे भी काल की प्रतीक्षा करनी चाहिये। संन्‍यासी अपने चित्त को राग-द्वेष आदि दोषों से बचावे और सम्‍पूर्ण पापों से मुक्त होकर सर्वथा शत्रुहीन हो जाय। जिसेऐसी स्थिति प्राप्‍त हो उसे किसीसे क्‍या भय हो सकता है ? जिसे सम्‍पूर्ण प्राणियों से अभय प्राप्‍त है तथा जिसकी ओर से किसी भी प्राणी को कोई भय नहीं है, उस मोहमुक्त पुरूष को किसीसे भी भय नहींहोता। जैसेप पैरों द्वारा चलनेवाले अन्‍य प्राणियोंके सम्‍पूर्ण पदचिह्न हाथी के पदचिह्न में समा जाते है, उसी प्रकार सारा धर्म और अर्थ अहिंसा के अन्‍तर्भूत है। जो किसी की हिंसा नहीं करता, वह सदा अमृत (जन्‍म और मृत्‍यु के बन्‍धन से मुक्त) होकर निवास करता है। जो हिंसा न करनेवाला, समदर्शी, सत्‍यवादी, धैर्यवान्, जितेन्द्रिय और सम्‍पूर्ण प्राणियों को शरण देनेवाला है, वह अत्‍यन्‍त उत्तम गति पाता है। इस प्रकार जो ज्ञानान्‍द से तृप्‍त होकर भय और कामनाओं से रहित हो गया है, उस पर मृत्‍यु का जोर नहीं चलता। वह स्‍वयं ही मृत्‍यु को लॉघ जाता है। जो सब प्रकार की आसक्तियों से छूटकर मुनिवृत्तिसे रहता है, आकाश की भाँति निर्लेप और स्थिर है, किसी भी वस्‍तु को अपनी नहीं मानता, एकाकी विचरता और शान्‍तभाव से रहता है, उसे देवता ब्रह्रावेत्ता मानते है। जिसका जीवन धर्म के लिये और धर्म भगवान् श्रीहरि के लिये होता है, जिसके दिन और रात धर्मपालन में ही व्‍यतीत होते हैं, उसे देवता ब्रह्राज्ञ मानते हैं। जो कामनाओं से रहित तथा सब प्रकारकेआरम्‍भों से रहित है, नमस्‍कार और स्‍तुति से दूर रहता तथा सब प्रकार के बन्‍धनों से मुक्त होता है, उसे देवता ब्रह्राज्ञानी मानते हैं। सम्‍पूर्ण प्राणी सुख में प्रसन्‍न होते और दु:ख से बहुत डरते है; अत: प्राणियों पर भय आता देखकर जिसे खेद होता है, उस श्रद्धालु पुरूष को भयदायक कर्म नहीं करना चाहिये। इस जगत् में जीवों को अभय की दक्षिणा देना सब दानों से बढ़कर है । जो पहले से ही हिंसा का त्‍याग कर देता है, वह सब प्राणियों से निर्भय होकर मोक्ष प्राप्‍त कर लेता है। जो संन्‍यासी खोले हुए मुख में ‘प्राणाय स्‍वाहा’ इत्‍यादि मन्‍त्रों से प्राणों के लिये अन्‍न की आहुति नहीं देता, अपितु प्राणों (इन्द्रिय-मन आदि) को ही आत्‍मा में होम देता-लीन करता है, उसका मस्‍तक आदि सारा अंगसमुदाय तथा किया हुआ और नहीं किया हुआ कर्मसमूह अग्नि का ही अवयव हो जाता है अर्थात् वह उस अग्नि का स्‍वरूप हो जाता है, जो सृष्टि के आरम्‍भ से ही प्राणियों के नाभिस्‍थान –उदर में जठरानलरूप में विराजमान है तथा सम्‍पूर्णजगत् का आश्रय है । उस वैश्‍वानर (अग्नि) ने इस सम्‍पूर्ण जगत् को व्‍याप्‍त कर रखा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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