महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 252 श्लोक 1-12
द्विपञ्चाशदधिकद्विशततम (252) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
शरीर में पंचभूतों के कार्य और गुणों की पहचान
व्यासजी कहते हैं– बेटा ! जो अर्थ और धर्म का अनुष्ठाान करके सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों को धैर्यपूर्वक सहता हो और मोक्ष की जिज्ञासा रखता हो, उस श्रद्धालु शिष्य को गुणवान् वक्तापहले इस महत्वपूर्ण अध्यात्म शास्त्र का श्रवण कराये। आकाश, वायु, जल, तेज और पॉचवॉ पृथ्वी तथा भाव पदार्थ अर्थात् गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवायएवं अभाव और काल (दिक्, आत्मा और मन) ये सब केसब समस्त पांच भौतिक शरीरधारी प्राणियोंमें स्थित हैं। आकाश अवकाशस्वरूप है और श्रवणेन्द्रिय आकाशमय है ।शरीर-शास्त्र के विधान को जाननेवाला मनुष्य शब्द को आकाश का गुण जाने। चलना-फिरना वायु का धर्म है । प्राण और अपान भी वायुस्वरूप ही हैं (समान, उदान औ व्यान को भी वायुरूप ही मानना चाहिये) । स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) तथा स्पर्श नामक गुण को भी वायुमय ही समझना चाहिये। ताप, पाक, प्रकाश और नेत्रेन्द्रिय-ये सब तेज या अग्नितत्व के कार्य हैं । श्याम, गौर और ताम्र आदि वर्णवाले रूप को उसका गुण समझना चाहिये। क्लेदन (किसीवस्तु को सड़ा गला देना), क्षुद्रता (सूक्ष्मता) तथा स्निग्धता-ये जल के धर्म बताये जाते हैं । रक्त, मज्जा तथा अन्य जो कुछ स्निग्ध पदार्थ हैं, उन सबको जलमय समझे। रसनेन्द्रिय, जिह्रा और रस-ये सब जल के गुण माने गये हैं । शरीर में जो संघात या कड़ापन है, वह पृथ्वी का कार्य है, अत: हड्डी, दॉत और नख आदि को पृथ्वी का अंश समझना चाहिये। इसी प्रकार दाढ़ी-मॅूछ, शरीर के रोऍ, केश, नाड़ी, स्नायु और चर्म – इनसबकी उत्पत्ति भी पृथ्वी का ही अंश है । इस गन्धनामक विषय को भी पार्थिव गुण ही जानना चाहिये। उत्तरोत्तर सभी भूतों के गुण विद्यमान हैं, (जैसेआकाश में शब्दमात्र गुण है; वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण; तेज में शब्द, स्पर्श और रूप-तीन गुण; जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस-चार गुण तथा पृथ्वी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध पॉच गुण है)। अविद्या, काम और कर्म भी कहते हैं । ये सब मिलकर आठ हुए । इनके साथ मन को नवॉ और बुद्धि को दसवॉ तत्व माना गया है । अविनाशी आत्मा ग्यारहवॉ तत्व है ।उसी को सर्वस्वरूप और श्रेष्ठ बताया जाता है । बुद्धि निश्चयात्मिका होती है और मन का स्वरूप संशय बताया गया है । कर्मों का ज्ञाता और कर्ता कोई भी जड़तत्व नहीं हो सकता, इस अनुमान ज्ञान और कर्ता कोई भी जड़तत्व नहीं हो सकता, इस अनुमान ज्ञान से उस क्षेत्रज्ञ नामक जीवात्मा को समझना चाहिये। जो मनुष्य सारे जगत् को इन समस्त कालात्मक भावों से सम्पन्न देखता और निष्पाप कर्म करता है,वह कभी मोह में नहीं पड़ता है।
« पीछे | आगे » |