महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 254 श्लोक 1-24
चतुष्पञ्चाशदधिकद्विशततम (254) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
कामरूपी अद्भूत वृक्ष का तथा उसे काटकर मुक्ति प्राप्त करने के उपाय का और शरीररूपी नगर का वर्णन
व्यासजी कहते हैं– बेटा ! मनुष्य की हृदयभूमि में मोहरूपी बीज से उत्पन्न हुआ एक विचित्र वृक्ष है, जिसका नाम है काम । क्रोध और अभिमान उसके महान् स्कन्ध है । कुछ करने की इच्छा उसमें जल सींचने का पात्र है । अज्ञान उसकी जड़ है ।प्रमाद ही उसे सींचनेवाला जल है । दूसरों के दोष देखना उस वृक्ष का पत्ता है तथा पूर्व जन्म में किये हुए पाप उसके सारभाग हैं। शोक उसकी शाखा, मोह और चिन्ता डालियॉ एवं भय उसके अंकुर हैं । मोह में डालनेवाली तृष्णारूपी लताऍ उसमें लिपटी हुई हैं। लोभी मनुष्य लोहे की जंजीरों के समान वासना के बन्धनों में बॅधकर उस फलदायक महान् वृक्ष को चारों ओर से घेरकर आस-पास बैठे हैं और उसके फल को प्राप्त करना चाहते हैं। जो उस वासना के बन्धनों को वश में करके वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा उस काम-वृक्ष को काट डालता है, वह मनुष्य जरा और मृत्युजनित दोनों प्रकार के दु:खों से पार हो जाता है। पंरतु जो मूर्ख फल के लोभ से सदा उस वृक्षपर चढ़ता है, उसे वह वृक्ष ही मार डालता है; ठीक वैसे ही, जैसे खायी हुई विष की गोली रोगी को मार डालती है। उस काम-वृक्ष की जडे़ बहुत दूरतक फैली हुई हैं। कोई विद्वान् पुरूषही ज्ञानयोग के प्रसाद से समतारूप उत्तम खड्ग के द्वारा बलपूर्वक उस वृक्ष का मूलोच्छेद कर डालता है। इस प्रकारजो केवल कामनाओं को निवृत्त करने का उपाय जानता है तथा भोगविधायक शास्त्र बन्धनकारक है-इस बात को समझता है, वह सम्पूर्ण दु:खों को लॉघ जाता है। इस शरीर को पुर या नगर कहते है। बुद्धि इस नगर की रानी मानी गयी है और शरीरके भीतर रहनेवाला मन निश्चयात्मि का बुद्धिरूप रानी के अर्थ की सिद्धि का विचार करनेवाला मन्त्री हैं। इन्द्रियॉ इस नगर मे निवास करनेवाली प्रजा हैं। वे मनरूपी मन्त्री की आज्ञा के अधीन रहती हैं । उन प्रजाओं की रक्षाके लिये मन को बडे़-बडे़ कार्य करने पड़ते हैं। वहॉ दो दारूण दोष हैं, जो रज और तम के नाम से प्रसिद्ध हैं। नगर के शासक मन, बुद्धि और जीव इन तीनों के साथ समस्त पुरवासीरूप इन्द्रियगण मन द्वारा प्रस्तुत किये हुए शब्द आदि विषयों का उपभोग करते है। रजोगुण और तमोगुण-ये दो दोष निषिद्धमार्ग के द्वारा उस विषय-सुख का आश्रय लेते हैं। वहॉ बुद्धि दुर्धर्ष होनेपर भी मन के साथ रहने से उसी के समान हो जाती है। उस समय इन्द्रियरूपी पुरवासीजन मन के भय से त्रस्त हो जाते हैं, अत: उनकी स्थिति भी चंचल ही रहती है । बुद्धि भी उस अनर्थ काही निश्चय करती है । इसलिये वह अनर्थ आ बसता है। बुद्धि जिस विषस का अवलम्बन करती है, मन भी उसी का आश्रय लेता है। मन जब बुद्धि से पृथक् होता है, तब केवल मन रह जाता है। उस समय रजोगुणजनित काम मन को आत्मा के बल से युक्त होनेपर भी विवेक से रहित होने के कारण सब ओर से घेर लेता है । तब वह काम से घिरा हुआ मन उस रजोगुणरूप काम के साथ मित्रता स्थापित कर लेता है । उसके बाद वह मन ही उस इन्द्रियरूप पुरवासीजन को रजोगुणजनित काम के हाथ में समर्पित कर देता है (जैसे राजा का विरोधी मन्त्री राज्य और प्रजा को शत्रु के हाथ में सौंप देता है)।
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