महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 258 श्लोक 19-37
अष्टपञ्चादधिकद्विशततम (258) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
तात ! महामते ! नरश्रेष्ठ ! फिर वह दस हजार पद्य वर्षो तक मृगों के साथ विचरती रही । इसके बाद बीस हजार वर्षो तक उसने केवल वायु का आहार किया। राजन् ! तदनन्तर उसने उत्तम मौन-व्रत धारण कर लिया । पृथ्वीपते ! फिर उसने जल में आठ हजार वर्षों तक रहकर तपस्या की। नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर वह कन्या कौशिकी नदी के तटपर गयी । वहॉ वायु और जल का आहार करके उसने पुन: कठोर नियमों का पालन किया। तत्पश्चात् वह महाभागा ब्रह्राकन्या गंगाजी के किनारे और केवल मेरूपर्वत पर गयी । वहॉ प्रजावर्ग के हित की इच्छा से वह काठ की भॉति निश्चेष्ट खडी़ रही। राजेन्द्र ! तदनन्तर हिमालय पर्वत के शिखर पर जहॉ पहले देवताओं ने यज्ञ किया था, उस स्थानपर वह परम शुभलक्षणा कन्या एक निखर्व वर्षों तक अॅगूठे के बल पर खडी़ रही । इस प्रकार यत्न करके उसने पितामह ब्रह्राजी को संतुष्टकर लिया। तब सम्पूर्ण लाकों की उत्पत्ति और प्रलय के कारणभूत ब्रह्राजी वहॉ उस कन्या से बोले-‘बेटी! तुम यह क्या करती हो ? मेरी आज्ञा का पालन करो’। तब मृत्यु ने पुन: भगवान् पितामह से कहा- ‘देवि ! मैं प्रजा का नाश नहीं कर सकती । इसके लिये पुन: आपका कृपा प्रसाद चाहती हॅू’। अधर्म के भय से डरकर पुन: कृपा की भीख मॉगती हुई मृत्यु को रोककर देवाधिदेव ब्रह्राने उससे यह बात कही। ‘मृत्यो! तुम इन प्रजाओं का संहार करो । शुभे ! इससे तुम्हें पाप नही लगेगा । भद्रे ! मेरी कही हुई कोई भी बात यहॉ झूठी नहीं हो सकती। ‘सनातन धर्म यहीं तुम्हारे भीतर प्रवेश करेगा । मैं तथा ये सम्पूर्ण देवता सदा तुम्हारे हित में लगे रहे्ंगे। ‘मैं तुम्हें यह दूसरा भी मनोवांछित वर दे रहा हॅू कि रोगोंसे पीडि़त हुई प्रजा तुम्हारे प्रति दोष-दृष्टि नहीं करेगी । तुम पुरूषों में पुरूषरूप से रहोगी, स्त्रियों में स्त्रीरूप धारण कर लोगी और नपुंसको में नपुंसक हो जाओगी’। महाराज ! ब्रह्राजीके ऐसा कहनेपर मृत्यु हाथ जोड़कर उन अविनाशी महात्मा देवेश्वर ब्रह्रा से पुन: इस प्रकार बोली-‘प्रभो ! मैं प्राणियों का संहार नहीं करूँगी’। तब ब्रह्राजी ने उससे कहा-‘मृत्यों ! तुम मनुष्यों का संहार करो, तुम्हें पाप नहीं लगेगा । शुभे ! मैं तुम्हारे लिये शुभ चिन्तन करता रहॅूगा। ‘मृत्यो ! मैने पहले तुम्हारे जिन अश्रुबिन्दुओं को गिरते देखा और जिन्हें अपने हाथों में धारण कर लिया था, वे ही समय आनेपर भयंकर रोग बनकर मनुष्यों को काल के गाल में डाल देंगे। ‘सभी प्राणियों के अन्तकाल में तुम काम और क्रोध को एक साथ नियुक्त कर देना । इस प्रकार तुम्हें अप्रमेय धर्म की प्राप्ति होगी और तुम्हें पाप नहीं लगेगा; क्योंकि तुम्हारी चित्तवृत्ति सम (राग-द्वेष से शून्य) है। ‘इस प्रकार तुम धर्म का पालन करोगी और अपने-आपको पाम में नहीं डुबाओगी; अत/ अपने को प्राप्त होनेवाले इस अधिकार को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करो और काम को इस कार्य में लगाकर इस जगत् के प्राणियों का संहार करो’। तब वह मृत्यु नामवाली नारी शाप से डरकर ब्रह्राजी से बोली- ‘बहुत अच्छा, आपकी आज्ञा स्वीकार है ।‘ वही मृत्यु प्राणियों का अन्तकाल आनेपर काम और क्रोध को प्रेरित करके उनके द्वारा उन्हें मोह में डालकर मार डालती है।
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