महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 259 श्लोक 14-27
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एकोनषष्टयधिकद्विशततम (259) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
संसार में कोई भी न तो अत्यन्त बलवान् होते हैं और न बहुत सुखी ही। इसलिये तुम्हें अपनी बुद्धि में कभी कुटिलता का विचार नहीं लाना चाहिये। जो किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं है, उसे दुष्टों, चोरों अथवा राजा से भय नहीं होता । शुद्ध आचार-विचारवाला पुरूष सदा निर्भय रहता है। गॉवों में आये हुए हिरण की भॉति चोर सबसे डरता रहता है । वह अनेकों बार दूसरों के साथ जैसा पापाचार कर चुका है, दूसरों को भी वैसा ही पापाचारी समझता है। जिसका आचार-विचार शुद्ध है, उसे कहीं से कोई खटका नहीं होता । वह सदा प्रसन्न एवं सब ओर से निर्भय बना रहता है तथा वह अपना कोई दुष्कर्म दूसरों में नहीं देखता है। समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाले महात्माओं ने ‘दान करना चाहिये’ ऐसा कहकर इसे धर्म बताया है; परंतु बहुत-से धनवान् उसे दरिद्रों का चलाया हुआ धर्म समझते है। परंतु यदि भाग्यवश वे भी निर्धन या दर-दर के भिखारी हो जाते हैं, उस समय उनको भी यह धर्म उत्तम जान पड़ता है; क्योंकि कोई भी न तो अत्यन्त धनवान् होते हैं और न अतिशय सुखी ही हुआ करते हैं (अत: धनका अभिमान नहीं करना चाहिये)। मनुष्य दूसरों द्वारा किये हुए जिस व्यवहार को अपने लिये वांछनीय नहीं मानता, दूसरों के प्रति भी वह वैसा बर्ताव न करे । उसे यह जानना चाहिये कि जो बर्ताव अपने लिये अप्रिय है, वह दूसरों के लियेभी प्रिय नहीं हो सकता। जो स्वयं दूसरे के घर मे उपपति (जार) बनकर जाता है-परायी स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, वह दूसरे को वैसा ही कर्म करते देख किससे क्या कह सकता है ? यदि दूसरे की उसी प्रवृत्ति के कारण वह निन्दा करे तोवह पुरूष उसकी निन्दा को नहीं सह सकता –ऐसा मेरा विश्वास है। जो स्वयं जीवित रहना चाहता हो, वह दूसरों के प्राण कैसे ले सकता है ? मनुष्य अपने लिये जो-जो सुख-सुविधा चाहे, वही दूसरे के लिये भी सुलभ कराने की बात सोचे। जो अपनी आवश्यकता से अधिक हो, उन भोपदार्थों को दूसरे दीन-दुखियों के लिये बॉट दे । इसीलिये विधाता ने सूद पर धन देने की वृत्ति चलायी है। जिस सन्मार्ग पर मर्यादा पर देवता स्थित होते हैं, उसीपर मनुष्य को भी स्थिर रहना चाहिये अथवा धन-लाभ के समय धर्म में स्थित रहना भी अच्छा है। युधिष्ठिर ! सबके साथ प्रेमपूर्ण बर्ताव करने से जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब धर्म है, ऐसा मनीषी पुरूषों का कथन है तथा जो इसके विपरीत है, वह अधर्म है । तुम धर्म और अधर्म का संक्षेप से यही लक्षण समझो। विधाता ने पूर्वकाल में सत्पुरूषों के जिस उत्तम आचरण का विधान किया है, वह विश्व के कल्याण की भावना से युक्त है और उससे धर्म एवं अर्थ के सूक्ष्म स्वरूप का ज्ञान होता है। कुरूश्रेष्ठ ! यह मैंने तुमसे धर्म का लक्षण बताया है; अत: तुम्हें किसी तरह कुटिल मार्ग में अपनी बुद्धि को नहीं ले जाना चाहिये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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