महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 260 श्लोक 15-20
षष्टयधिकद्विशततम (260) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
क्योंकि उस समय कुछ लोग स्वार्थवश, दूसरे लोग दूसरों की इच्छा से तथा अन्य मनुष्य अन्यान्य कारणों से धर्माचरण करते हैं और बहुत से असाधु पुरूष भी व्यर्थ धर्माचरण का ढोंग फैला लेते हैं। उन दिनों लोगो द्वारा प्राय: सकामभाव से ही धर्म का आचरण होता देखा जाता है ।श्रेष्ठ पुरूषों में जो यथार्थ धर्म होता है, वह शीघ्र ही मूढ़ मनुष्योंकी दृष्टि में प्रलापमात्र सिद्ध होता है । वे मूढ उन धर्मात्मा पुरूषों को पागल कहतेऔर उनकी हॅसी उड़ाते हैं। आचार्य द्रोण जैसे महापुरूष भी स्वधर्म से हटकर क्षत्रियधर्म का आश्रय लेते हैं; अत: कोई भी आचार ऐसा नहीं है, जो सबके लियेसमानरूप से हितकर या सबके द्वारा समानरूप से पालित हो। यह भी देखा जाता हैं कि उसी धर्मकेआचरण से विश्वामित्र आदि अन्य महापुरूषों ने उन्नति प्राप्त की है तथा रावणादि निशाचर उसी धर्म के बल से दूसरोंको पीड़ा देते हैं एवं कश्यप आदि अनेक महर्षि ईश्वर की इच्छा से उसी धर्म के द्वारा सदा एक सी स्थिति में दिखायी देते है। जिस धर्मको अपनाकर एक व्यक्ति उन्नति करता है, उसी से दूसरा दूसरों को पीड़ा देता है; अत: सबके लिये आचारोंकी एकरूपता कोई नहीं दिखा सकता। आपने पहले उसी धर्म का वर्णन किया है, जिसे विद्वान् लोग चिरकाल से धारण करते चले आ रहे हैं । मैं भी यही समझता हॅू कि उस पूर्वप्रचलित धर्म के आचरण द्वारा ही समाज की मर्यादा दीर्घकालतक टिकी रहती है।
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