महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 262 श्लोक 16-30

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द्विषष्‍टयधिकद्विशततम (262) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विषष्‍टयधिकद्विशततम श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद

जब समस्‍त प्राणियों के प्रतिमन, वाणी और क्रिया द्वारा भी बुरे भाव नहीं होते हैं तब मनुष्‍य ब्रह्राभाव को प्राप्‍त होता है । जिसका भूत या भविष्‍य में कोई कार्यनहीं है तथा जिसके लिये कोई धर्म करना शेष नहीं हैं, साथ ही सम्‍पूर्ण भूतों को अभय प्रदान करता है, वही निर्भय पद को प्राप्‍त होता हैं। जैसे सब लोग मौत के मुख में जाने से डरते हैं, उसी प्रकारजिसके स्‍मरणमात्र से सबलोग उद्विग्‍न हो उठते हैं तथा जो कटुवचन बोलनेवाला और दण्‍ड देने में कठोर हैं, ऐसे मनुष्‍य को महान् भय का सामनाकरना पड़ता है। जो वृद्ध हैं, पुत्र और पौत्रों से सम्‍पन्‍न है, शास्‍त्र के अनुसार यथोचित आचरण करते हैं और किसी भी जीव की हिंसा नहीं करते हैं, उन्‍हीं महात्‍माओं के बर्ताव का मैं भी अनुसरण करता हॅू। अनाचार से सनातन धर्ममोहयुक्‍त होकर नष्‍ट हो जाता है । उसकेद्वारा विद्वान् तपस्‍वी तथा काम क्रोध को जीतनेवाला बलवान् पुरूष भी मोह में पडजाता है। जाजले ! जो जितेन्द्रिय पुरूष अपने चित्त में दूसरों के प्रति द्रोह न रखकर, इस प्रकारश्रेष्‍ठ पुरूषों द्वारापालित आचार को अपने आचरण में लाता है, वह विद्वान् वेदबोधित सदाचार का पालन करनेसे शीघ्र ही धर्म के रहस्‍य को जान लेता है। जैसे यहॉ नदी की धारा में दैवेच्‍छा से बहताहुआ काठ अकस्‍मात् किसीदूसरे काठ से संयुक्‍तहो जाताहै;फिर वहॉ दूसरे-दूसरे काष्‍ठ, तिनके, छोटी-छोटीलकडि़यॉ और सूखे गोबर भी आकर एक दूसरे से जुड़ जाते हैं, परंतु इन सबका वह संयोग आकस्मिक ही होता है, समझ-बूझकर नहीं (इस प्रकार संसार के प्राणियों के भी परस्‍पर संयोग-वियोग होते रहते है)। मुने ! जिससे कोई भी प्राणी कभी किसीतरह भी उद्विग्‍न नहीं होता, वह सदा सम्‍पूर्ण भूतों से अभय प्राप्‍त कर लेता है। महामते ! विद्वन् ! जैसे नदी के तीरपर आकर कोलाहल करनेवालेमनुष्‍य के डर से सभीजलचर जन्‍तु भय के मारेछिपजाते हैं तथा जिस प्रकार भेडि़येको देखकर सभी थर्रा उठते हैं, उसी प्रकार ि‍जससे सब लोग डरतेहैं, उसे भी सम्‍पूर्ण प्राणियों से भय प्राप्‍त होता है। इस प्रकार यह अभयदानरूप आचार प्रकटहुआ है, जो सभी उपायों से साध्‍य है-जैसे बने वैसे इसका पालनप करना चाहिये । जो इसे आचरण में लाता है वह सहायवान्, द्रव्‍यमान, सौभाग्‍यशाली तथा श्रेष्‍ठ समझा जाता है। अत: जसे अभयदान देने में समर्थ होते हैं, उन्‍हीं को विद्वान् पुरूष शास्‍त्रों मे श्रेष्‍ठ बतातेहैं। उनमें से जो बहिर्मुख होकर अपनेहृदय में क्षणभगुंर विषयसुखों की इच्‍छा रखते है,वे कीर्ति और मान बड़ाई के लिये ही अभयदानरूपका व्रत का पालन करते हैं; परंतु जो पटु या प्रवीण पुरूष हैं,वे पूर्णस्‍वरूप परब्रह्रा की प्राप्ति के ि‍लये ही इस व्रतका आश्रय लेते है। तप, यज्ञ, दान और ज्ञान सम्‍बन्‍धी उपदेश के द्वारा मनुष्‍य यहॉ जो-जो फल प्राप्‍त करता है, वह सब उसे केवल अभय दान से ि‍मल जाता है। जो जगत् में सम्‍पूर्ण प्राणियों को अभय की दक्षिणा देता है, वह मानो समस्‍त यज्ञों का अनुष्‍ठान कर लेता है तथा उसे भी सब ओर से अभयदान प्राप्‍त हो जाता है। प्राणियों की हिंसा न करने से ि‍जस धर्म की सिद्धि होती है, उससे बढ़कर महान् धर्म कोई नही हैं । महामुने ! जिससे कभी कोई भी प्राणी किसी तरह उद्विग्‍न नहीं होता, वह भी सम्‍पूर्ण प्राणियों से अभयप्राप्‍त कर लेता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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