महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 1-12
त्रिषष्टयधिकद्विशततम (263) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
अध्याय: जाजलिने कहा – वणिक् महोदय ! तुम हाथ में तराजू लेकर सौदा तौलते हुए जिस धर्म का उपदेश करते हो, उससे तो स्वर्ग का दरवाजा ही बंद किये देते हो और प्राणियों की जीविकावृत्ति में भी रूकावट पैदा करते हो। वैश्यपुत्र ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि खेती से ही अन्न पैदा होता है, जिससे तुम भी जी रहे हो। अन्न और पशुओं से ही मनुष्य का जीवन-निर्वाह होता है। उन्हीं से यज्ञकार्य सम्पन्न होता है। तुम तो नास्तिकताकी भी बातें करते हो। यदि पशुओंके कष्ट का ख्याल करके खेती आदि वृत्तियों का त्याग कर दिया जाय, तो इस संसार का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। तुलाधार ने कहा- जाजले ! मैं तुम्हें हिंसातिरिक्त जीविका-वृत्ति बताऊँगा । ब्राह्मणदेव ! मैं नास्तिक नहीं हूँ और न यज्ञ की ही निन्दा करता हूँ; परंतु यज्ञ के यथार्थ स्वरूप को समझने वाला पुरूष अत्यन्त दुर्लभ है। विप्र ! ब्राह्मणों के लिये जिस यज्ञ का विधान है, उसको तो मैं नमस्कार करता हूँ और जो लोग उस यज्ञ को ठीक-ठीक जानते हैं, उनके चरणों में भी मस्तक झुकाता हूँ, किंतु खेद है, इस समय ब्राह्मणलोग अपने यज्ञ का परित्याग करके क्षत्रियोचित यज्ञों के अनुष्ठान में प्रवृत हो रहे हैं। ब्रह्मन् ! धन कमाने के प्रयत्न में लगे हुए बहुत-से लोभी और नास्तिक पुरूषों ने वैदिक वचनों का तात्पर्य न समझकर सत्य-से प्रतीत होने वाले मिथ्या यज्ञों का प्रचार कर दिया है। जाजले ! श्रुतियों और स्मृतियों में कहा गया है कि अमुक कर्म के लिये यह दक्षिणा देनी चाहिये, वह दक्षिणा देनी चाहिये, उसके अनुसार वैसी दक्षिणा देने से भी यह यज्ञ श्रेष्ठ माना जाता है; अन्यथा शक्ति रहते हुए यदि यज्ञकर्ता ने लोभ दिखाया तो उसको चोरी करने का पाप लगता है और उस कर्म में भी विपरीतता आ जाती है। शुभ कर्म के द्वारा जिस हविष्य का संग्रह किया जाता है, उसी के होम से देवता संतुष्ट होते हैं। शास्त्र के कथनानुसार नमस्कार, स्वाध्याय, घी और अन्न-इन सबके द्वारा देवताओं की पूजा हो सकती है। जो लोग कामना के वशीभूत होकर यज्ञ करते, तालाब खुदवाते या बगीचे लगवाते हैं, उन (सकामभावयुक्त) असाधु पुरूषों से उन्हीं समान गुणहीन संतान उत्पन्न होती है। लोभी पुरूषों से लोभी का जन्म होता है और समदर्शी पुरूषों से समदर्शी पुत्र उत्पन्न होता है। यजमान और ॠत्विज् स्वयं जैसे होते हैं, उनकी प्रजा भी वैसी ही होती है। जिस प्रकार आकाश से निर्मल जल की वर्षा होती है उसी प्रकार शुद्ध भाव से किये हुए यज्ञ से योग्य प्रजा की उत्पत्ति होती है। विप्रवर ! अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्यमण्डल को प्राप्त होती है, सूर्य से जल की वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न उपजता है और अन्न से त्रिषष्टयधिकद्विशततमोअध्याय: सम्पूर्ण प्रजा जन्म तथा जीवन धारण करती है। पहले के लोग कर्तव्य समझकर यज्ञ में श्रद्धापूर्वक प्रवृत होते थे और उस यज्ञ से उनकी सम्पूर्ण कामनाएं स्वत: पूर्ण हो जाती थीं। पृथ्वी से बिना जोते-बोये ही काफी अन्न पैदा होता तथा जगत् की भलार्इ के लिये उनके शुभ संकल्प से ही वृक्षों और लताओं में फल-फूल लगते थे।
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