महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 39-45

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त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम (263) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिषष्‍टयधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 39-45 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

तुलाधर ने कहा– ब्रह्मन् ! जिन दम्‍भी पुरूषों के यज्ञ अश्रद्धा आदि दोषों के कारण यज्ञ कहलाने योग्‍य नहीं रह जाते, वे न तो मानसिक यज्ञ के अधिकारी हैं और न क्रियात्‍मक यज्ञ के ही। श्रद्धालु पुरूष तो घी, दूध, दही और विशेषत: पूर्णाहुति से ही अपना यज्ञ पूर्ण करते हैं । श्रद्धालुओं में जो असमर्थ हैं, उनका यज्ञ गाय अपनी पूंछ के बालों के स्‍पर्श से, श्रृंगजल से और पैरों की धूल से ही पूर्ण कर देती है। इसी विधि से देवता के लिये घी आदि द्रव्‍य समर्पित करने के लिये श्रद्धा को ही पत्‍नी बनाये और यज्ञ को ही देवता के समान आराध्‍य बनाकर यथावत् रूप से यज्ञ पुरूष भगवान विष्‍णु को प्राप्‍त करे। य‍ज्ञविहित समस्‍त पशुओं के दुग्‍ध आदि से निर्मित पुरोडाश को ही पवित्र बताया जाता है। सारी नदियां ही सरस्‍वती का रूप हैं और समस्‍त पर्वत ही पुण्‍यमय प्रदेश हैं। जाजले ! यह आत्‍मा ही प्रधान तीर्थ है। आप तीर्थसेवन के लिये देश-देश में मत भटकिये। जो यहां मेरे बताये हुए अहिंसाप्रधान धर्मों का आचरण करता है तथा विशेष कारणों से धर्म का अनुसंधान करता है, वह कल्‍याणकारी लोकों को प्राप्‍त होता है। भीष्‍मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! इस प्रकार हिंसारहित, युक्तिसंगत तथा श्रेष्‍ठ पुरूषों द्वारा सेवित धर्मों की ही तुलाधार वैश्‍य ने सदा प्रशंसा की थी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में तुलाधार और जाजलि का संवादविषयक दो सौ तिरसठवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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