महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 268 श्लोक 34-41
अष्टषष्टयधिकद्विशततम (268) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
वेदों के ब्राह्मण भाग से यज्ञ का प्राकट्य हुआ है। वह यज्ञ ब्राह्मणों को ही अर्पित किया जाता है। यज्ञ के पीछे सारा जगत और जगत के पीछे सदा यज्ञ रहता है। ‘ऊँ’ यह वेद का मूल कारण है। वह ऊँ तथा नम:, स्वाहा, स्वधा और वषट्- ये पद यथाशक्ति जिसके यज्ञ में प्रयुक्त होते हैं, उसी का यज्ञ सांगोपांग सम्पन्न होता है। ऐसे मनुष्य को तीनों लोकों में किसी भी प्राणीसे भय नहीं होता है। यह बात यहाँ सम्पूर्ण वेद तथा सिद्ध महर्षि भी कहते हैं। ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और विधिविहित स्तोभ[१]- ये सब जिसमें विद्यमान होते हैं, वही इस जगत में द्विज कहलाने का अधिकारी है। ब्रह्मन् ! अग्न्याधान, (अग्निहोत्र) तथा सोमयाग करने से जो फल मिलता है और अन्यान्य महायज्ञों के अनुष्ठान से जिस फल की प्राप्ति होती है, उसे आप जानते हैं। अत: विप्रवर ! प्रत्येक द्विज को चाहिये कि वह बिना किसी विचार के यज्ञ करे और करावे । जो स्वर्गदायक विधि से यज्ञ करता है, उसे देहत्याग के पश्चात महान स्वर्ग फल की प्राप्ति होती है। यह निश्चय है कि जो यज्ञ नहीं करते हैं, ऐसे पुरूषों के लिये न तो यह लोक सुखदायक होता है और न स्वर्ग ही। जो वेदोक्त विषयों के जानकार हैं, वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को ही प्रमाणभूत मानते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में गोकपिलीयोपाख्यान विषयक दो सौ अड़ठवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सामगान के 'हाऽऽयि, हाऽऽवु' इत्यादि पूरक अक्षर हैं, उन्हें 'स्तोभ' कहते हैं।