महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 271 श्लोक 18-36
एकसप्तत्यधिकद्विशततम (271) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
तब महामनस्वी मणिभद्र ने देवताओं के कहने से पृथ्वी पर पड़े हुए उस मेघ से पूछा, 'कुण्डधार ! तुम क्या चाहते हो ? कुण्डधार बोला - यह ब्राह्मण मेरा भक्त है। यदि देवता लोग मुझ पर प्रसन्न हों तो मैं इसके ऊपर उनका ऐसा अनुग्रह चाहता हूँ, जिससे इसे भविष्य में कुछ सुख मिल सके । तब मणिभद्र ने देवताओं की ही आज्ञा से महातेजस्वी कुण्डधार के प्रति पुन: यह बात कही । मणिभद्र बोले - कुण्डधार ! उठो, उठो; तुम्हारा कल्याण हो, तुम कृतकृत्य और सुखी हो जाओ। यदि यह ब्राह्मण धन चाहता तो इसे धन दे दिया जाय । तुम्हारा सखा यह ब्राह्मण जितना धन चाहता हो, देवताओं की आज्ञा से मैं उतना ही अथवा असंख्य धन इसे दे रहा हूँ । युधिष्ठिर ! परंतु कुण्डधार ने यह सोचकर कि मानव-जीवन चंचल एवं अस्थिर है, उस ब्राह्मण के तपोबल को भी बढाने का विचार किया । कुण्डधार बोला -धनदाता देव ! मैं ब्राह्मण के लिये धन की याचना नहीं करता हूँ। मेरी इच्छा है कि मेरे इस भक्त पर किसी और प्रकार का ही अनुग्रह किया जाय। मैं अपने इस भक्त को रत्नों से भरी हुई पृथ्वी अथवा रत्नों का विशाल भण्डार नहीं देना चाहता । मेरी तो यह इच्छा है कि यह धर्मात्मा हो। इसकी बुद्धि धर्म में लगी रहे तथा यह धर्म से ही जीवन-निर्वाह करे। इसके जीवन में धर्म की ही प्रधानता रहे। इसी को मैं इसके लिये महान् अनुग्रह मानता हूँ । मणिभद्र बोला— धर्म के फल तो सदा राज्य और नाना प्रकार के सुख ही हैं; अत: यह ब्राह्मण शारीरिक कष्ट से रहित हो केवल उन फलों का ही उपभोग करे । भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर ! मणिभद्र के ऐसा कहने पर भी महायशस्वी कुण्डधार ने बार-बार अपनी वही बात दुहरायी। ब्राह्मण का धर्म बढे, इसी के लिये आग्रह किया। इससे सब देवता संतुष्ट हो गये । तब मणिभद्र ने कहा - कुण्डधार ! सब देवता तुम पर और इस ब्राह्मण पर भी बहुत प्रसन्न है। यह धर्मात्मा होगा और इसकी बुद्धि धर्म में लगी रहेगी । युधिष्ठिर ! इस प्रकार दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ मनोवाञ्छित वर पाकर कृतकृत्य एवं सफलमनोरथ हो वह मेघ बड़ा प्रसन्न हुआ । तत्पश्चात उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने निकट अगल-बगल में रखे हुए बहुत-से सूक्ष्म चीर (वल्कल आदि) देखे। इससे उसके मन में बड़ा खेद एवं वैराग्य हुआ । ब्राह्मण् मन-ही-मन बोला- जब मेरे इस पुण्यमय तप का उद्देश्य यह कुण्डधार ही नहीं समझ पा रहा है, तब दूसरा कौन जानेगा ! अच्छा, अब मैं वनको ही चलता हूँ। धर्ममय जीवन बिताना ही अच्छा है । भीष्म जी कहते हैं- राजन् ! वैराग्य और देवताओं के कृपाप्रसाद से वन में जाकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने उस समय बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की । देवताओं और अतिथियों को अर्पण करके शेष बचे हुए फल-मूल आदि का वह आहार करता था। महाराज ! धर्म के विषय में उसकी बुद्धि अटल हो गयी थी । कुछ काल के बाद वह ब्राह्मण सारे फल-मूल का भोजन छोड़कर केवल पत्ते चबाकर रहने लगा । फिर पत्ते का भी त्याग करके केवल जल पीकर निर्वाह करने लगा। तत्पश्चात बहुत वर्षों तक वह केवल वायु पीकर रहा । फिर भी उसकी प्राणशक्ति क्षीण नहीं होती थी, यह एक अद्भुत- सी बात थी ।
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