महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 273 श्लोक 15-24
त्रिसप्तत्यधिकद्विशततम (273) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
वह बढी हुई बुद्धि धर्म में ही सुख मानती और उसी का सहारा लेती है। वह पुरूष धर्म से प्राप्त होने वाले धन में मन लगाता है । वह जहाँ गुण देखता है, उसी के मूल को सींचता है। ऐसा करने से वह पुरूष धर्मात्मा होता है और शुभकारक मित्र प्राप्त करता है । भारत ! उत्तम मित्र और धन के लाभ से वह इहलोक और परलोक में भी आनन्दित होता है। ऐसा पुरूष शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध -इन पाँचों विषयों पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है। इसे धर्म का फल माना जात है। युधिष्ठिर ! वह धर्म का फल पाकर भी हर्ष से फूल नहीं उठता है । वह इससे तृप्त न होने के कारण विवेक दृष्टि से वेराग्य को ही ग्रहण करता है, बुद्धिरूप नेत्र के खुल जाने के कारण जब वह कामोपभोग, रस और गन्ध में अनुरक्त नहीं होता तथा शब्द, स्पर्श और रूप में भी उसका चित्त नहीं फँसता, तब वह सब कामनाओं से मुक्त हो जाता है और धर्म का त्याग नहीं करता । सम्पूर्ण लोकों को नाशवान समझकर वह सर्वस्व का मन से त्याग कर देने का यत्न करता है। तदनन्तर वह अयोग्य उपाय से नहीं किंतु योग्य उपाय से मोक्ष के लिये यत्नशील हो जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे मनुष्य को वैराग्य की प्राप्ति होने पर वह पापकर्म तो छोड़ देता है और धर्मात्मा बन जाता है। तत्पश्चात परम मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । तात ! भरतनन्दन ! तुमने मुझसे पाप, धर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में जो प्रश्न किया था, वह सब मैंने कह सुनाया । अत: कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ! तुम सभी अवस्थाओं में धर्म का ही आचरण करो; क्योंकि जो लोग धर्म में स्थित रहते हैं, उन्हें सदा रहने वाली मोक्ष रूप परम सिद्धि प्राप्त होती है ।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में चार प्रश्न और उनका उत्तर नामक दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय: पूरा हुआ ।
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