महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 277 श्लोक 1-12
सप्तसप्तत्यधिकद्विशततम (277) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
शरीर और संसार की अनित्यता तथा आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले पुरूष के कर्तव्य का निर्देश—पिता-पुत्र का संवाद
युधिष्ठिर ने पूछा — पितामह ! सम्पूर्ण प्राणियों को भय देने वाला यह काल धीरे-धीरे बीता जा रहा है। (कौन कब तक जीवित रहेगा, इसका कुछ निश्चय नहीं है।) ऐसी दशा में मनुष्य किस कार्य को अपने लिये कल्याणकारी समझे, यह मुझे बताइये ? भीष्मजी ने कहा - युधिष्ठिर ! इस विषय में विज्ञ पुरूष पिता-पुत्र-संवादरूप एक प्राचनी इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो । कुन्तीनन्दन ! प्राचीनकाल में किसी स्वाध्याय परायण ब्राह्मण के एक बड़ा मेधावी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम 'मेधावी' ही था । उसके पिता सदा स्वाध्याय में ही तत्पर रहते थे, किंतु मोक्षधर्म में इतने निपुण नहीं थे। पुत्र मोक्षधर्म के ज्ञान में कुशल था; अत: उसने अपने पिता से पूछा । पुत्र बोला-तात ! मनुष्यों की आयु तीव्रगति से बीती जा रही है। इस बात को अच्छी तरह जानने वाला धीर पुरूष किस धर्म का अनुष्ठान करे ? पिताजी ! यह सब क्रमश: और यथार्थरूप से आप मुझे बताइये, जिससे मैं भी उस धर्म का आचरण कर सकूँ । पिता ने कहा - बेटा ! द्विज को चाहिये कि वह पहले ब्रह्मचर्य-आश्रम में रहकर वेदों का अध्ययन कर ले, फिर पितरों का उद्धार करने के लिये गहस्थ-आश्रम में प्रवेश करके पुत्रोत्पादन की इच्छा करे। वहाँ विधिपूर्वक अग्नियों की स्थापना करके उनमें विधिवत् अग्निहोत्र करे। इस प्रकार यज्ञ कर्म का सम्पादन करके वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो मुनिवृत्ति से रहने की इच्छा करे । पुत्र ने पूछा - पिताजी ! यह लोक तो किसी के द्वारा अत्यन्त ताड़ित और सब ओर से घिरा हुआ जान पड़ता है। यहाँ ये अमोघ वस्तुएँ निरन्तर हम लोगों पर टूटी पड़ती हैं । ऐसी दशा में आप धीर पुरूष के समान कैसे बातचीत कर रहे हैं ? पिता बोले- पुत्र ! तुम मुझे डराने की चेष्टा क्यों करते हो ? भला, यह लोक कैसे ताड़ित होता है अथवा किसने इसे घेर रखा है ? और यहाँ कौन-सी अमोघ वस्तुएँ हम पर टूटी पड़ती हैं ? पुत्र बोला - पिताजी ! देखिये, मृत्यु सारे जगत को पीट रही है। बुढापे ने इसे घेर लिया है। ये दिन और रात्रियाँ हम पर टूटी पड़ती हैं । इस बात को आप समझ क्यों नहीं रहे हैं ? जब मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि मोत मेरे कहने से क्षणभर भी रूक नहीं सकती और मैं ज्ञानरूपी कवच से अपने को बिना ढके हुए ही विचर रहा हूँ, तब यह समझकर भी मैं अपने कल्याणसाधन में एक क्षण की भी प्रतीक्षा कैसे करूँगा ? जब प्रत्येक रात बीतने के बाद आयु क्षीण होकर कुछ-न-कुछ थोड़ी होती चली जा रही है, तब छिछले पानी में रहने वाली मछली के समान कौन सुख पा सकता है ? जैसे मनुष्य वन में फूल चुन रहा हो, उसी बीच में कोई हिंसक जीव उस पर आक्रमण कर दे; उसी प्रकार जब मनुष्य मन दूसरी ओर (विषयभोगों में) लगा होता है, उसी समय उसकी इच्छा पूर्ण होने के पहले ही सहसा मौत आकर उसे दबोच लेती है ।
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