महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 38-45

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अषीत्यधिकद्विशततम (280) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अषीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 38-45 का हिन्दी अनुवाद

‘तदनन्तर वह जीव लाखों बार (या लाखों वर्षों तक) नरक में विचरण करके फिर धूम्रवर्ण पाता है (पशु-पक्षी आदि की योनि में जन्म लेता है)। उस योनि में भी वह विवश होकर बड़े दुःख से निवास करता है। फिर युगक्षय होने पर वह तप (पुरातन पुण्यकर्म या विवेक) के प्रभाव से सुरक्षित होकर उस संकट से उद्धार पा जाता है । ‘वही जीव जब सत्त्वगुण से युक्त होता है,तब अपनी बुद्धि के द्वारा तमोगुणकी प्रवृत्तिको दूर हटाता हुआ अपने कल्याण के लिये प्रयत्न करता है। उस समय सत्त्वगुण के बढ. जाने पर वह रक्तवर्ण को प्राप्त होता है (इसी को अनुग्रह सर्ग कहा गया है, चित्तकी विभिन्न वृत्तियों पर ‘अनुग्रह‘ है)। जब सत्त्वगुण में कुछ कमी रह जाती है, तब वह जीव नीलवर्ण को प्राप्त होकर मनुष्यलोक में आवागमन करने लगता है । ‘तत्पश्‍चात वह मनुष्य लोक में एक कल्पतक स्वधर्मजनित बन्धनो से बँधकर क्लेष उठाता हुआ जब धीरे धीरे अपनी तपस्या को बढाता है, तब हल्दीकी-सी कान्तिवाले पीतवर्ण-देवताभावको को प्राप्त होता है। वहाँ भी सैकड़ों कल्प व्यतीत कर लेने पर वह पुनः पुण्यक्षय के पश्‍चात् मनुष्य होता है (इस प्रकार वह देवता से मनुष्य और मनुष्य से देवता होता रहता है) । ‘दैत्य ! सहस्त्रों कल्पोंतक देवरूप से विचरते रहने पर भी जीव विषयभोग से मुक्त नहीं होता तथा प्रत्येक कल्प में किये हुए अशुभ कर्मों के फलों को नरक में रहकर भोगता हुआ जीव उन्नीस[१] हजार विभिन्न गतियों को प्राप्त होता है। तत्‍पश्‍चात उसे नरक से छुटकारा मिलता है । मनुष्य के सिवा सभी योनियों में केवल सुख-दुःख के भोग प्राप्त होते हैं । मोक्ष का सुयोग हाथ नहीं लगता है। इस बात को तुम्हें भलीभाँति समझ लेना चाहिये । वह जीव निरन्तर देवलोक में विहार करता है और वहाँ से भ्रष्ट होने पर मनुष्य योनि को प्राप्त होता है। मर्त्‍यलोक में वह आठ सौ कल्पोंतक बारंबार जन्म लेता रहता है। तत्पश्‍चात शुभकर्म करके वह पुनः देवभाव को प्राप्त करता है ( यह आवागमन का चक्र तभी तक चलता है,जब तक जीव को परमज्ञान या अनन्य भक्ति की प्राप्ति नहीं हो जाती, उसकी प्राप्ति होने पर तो वह मुक्त या परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।) । ‘असुरो के प्रमुख वीर ! वह जीव कालक्रम से अशुभ कर्म करके कभी-कभी मर्त्‍यलोक से नीचे गिर जाता है और सबसे निकृष्ट तल प्रदेश की भाँति निम्‍नतम, कृष्णवर्ण ( स्थावर योनि ) में जन्म ग्रहण करके स्थित होता है। इस प्रकार उत्थान-पतन के चक्र में पडे़ हुए जीव समुह को जिस प्रकार सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होती है, वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ । ‘क्रमश: रक्तवर्ण (अनुग्राहक देवता), हरिद्रावर्ण (देवता) तथा शुक्लवर्ण (सनकादिकुमारों-जैसा सिद्ध शरीरधारी) होकर वह जीव बारी-बारी से सात सौ दिव्य शरीरों का आश्रय ले भू आदि सात उत्तमोत्तम लोकों में विचरण करके पूर्व पुण्य के प्रभाव से वेगपूर्वक विशुद्ध ब्रह्मलोक में चला जाता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दस इन्द्रिय, पाँच प्राण और चार अन्तःकरण - ये उन्नीस भोग के साधन हैं, विषय और वृत्तियों के भेद से इन्हीं के उतने ही सौ और उतने ही हजार प्रकार के हो जाते हैं।

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