महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 53-65

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अषीत्यधिकद्विशततम (280) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अषीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 53-65 का हिन्दी अनुवाद


‘जो योगी सिद्धलोक से गिरकर मृत्यु लोक में आये हैं, उनके समान साधन बल से सम्पन्न जो अन्य योगी हैं, वे क्रमश: उन सिद्ध पुरुषों की ही गति को प्राप्त होते हैं। परंतु जो वैसे नहीं हैं, वे विपरीतभाव के कारण अपनी-अपनी गति को प्राप्त होते हैं । ‘विशुद्धभाव से सम्पन्न सिद्ध पुरुष जब तक पंचेन्द्रियरूप इस करणसमुदाय का संयम करके शेष प्रारब्ध कर्म का उपभोग करता है, तब तक उसके शरीर में समस्त प्रजागणों का अर्थात् इन्द्रियों के देवताओं का तथा अपरा और परा विद्या का निवास रहता है । जो साधक सदा शुद्ध मन से उस विशुद्ध परमगति का अनुसंधान करता है, वह उसे अवश्‍य प्राप्त कर लेता है। तदनन्तर अविकारी,दुर्लभ एंव सनातन ब्रह्मपद को प्राप्त करके वह उसी में प्रतिष्ठित हो जाता है । ‘उत्कृष्ट बलशाली दैत्यराज ! इस प्रकार यहाँ मैनें तुमसे यह भगवान नारायण का बल एवं प्रभाव बताया है’ । वृत्रासुर बोला-उदारचित महात्मा सनत्कुमारजी ! यदि ऐसी बात है तो मुझे कोई विषाद नहीं है। मैं आपके वचन अच्छी तरह समझता और इसे यथार्थ मानता हूँ। आज मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि आपकी इस वाणी को सुनकर मेरे सारे पाप और कलुष दूर हो गये । भगवन् ! महर्षे! महातेजस्वी,अनन्त एवं सर्वव्यापी भगवान विष्णु का यह अमित शक्तिशाली संसार चक्र चल रहा है। यह भगवान विष्णु का सनातन स्थान है, जहाँसे सारी सृष्टिओं का आरम्भ होता है। महात्मा विष्णु पुरूषोत्तम हैं। उन्हीं में यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है । भीष्मजी कहते हैं - कुन्तीनन्दन ! ऐसा कहकर वृत्रासुर ने अपने आत्मा को परमात्मा में लगाकर उन्हीं का ध्यान करते हुए प्राण त्याग दिये और परमेश्‍वर के परमधाम को प्राप्त कर लिया । युधिष्ठिर ने पूछा - पितामह ! पूर्वकाल में महात्मा सनत्कुमार ने वृत्रासुर से जिनके स्वरूप का वर्णन किया था, वे भगवान विष्णु - ये हमारे जनार्दन श्रीकृष्ण ही तो हैं ? भीष्मजी ने कहा - युधिष्ठिर ! मूल-कारणरूप से स्थित, महान् देव, महामनस्वी भगवान नारायण हैं। वे अपने उस चिन्मय स्वरूप में स्थित होकर अपने प्रभाव से नाना प्रकार के सम्पूर्ण पदार्थों की सृष्टि करते हैं । अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले इन भगवान श्रीकृष्ण को तुम उस श्रीनारायण के एक चतुर्थ अंश से सम्पन्न समझो। बुद्धिमान श्री कृष्ण अपने उस चतुर्थ अंश से ही तीनों लोकों की रचना करते हैं । जो परवर्ती सनातन नारायण प्रलयकाल में भी विद्यमान हैं, वे ही अत्यन्त बलशाली और सबके अधीश्‍वर भगवान श्रीहरि कलपान्त में जल के भीतर शयन करते हैं तथा वे प्रसन्नात्मा सृष्टिकर्ता ईश्‍वर उन समस्त शाश्‍वत लोकों में विचरण करते हैं । अनन्त एवं सनातन भगवान श्री हरि समस्त कारणों को सत्ता और स्फूर्ति देकर परिपूर्ण करते और लीलावपु धारण करके लोकों में विचरण करते हैं। उन महापुरूष की गति कोई रोक नहीं सकता । वे ही इस जगत् की सृष्टि करते हैं। उन्हीं में सम्पूर्ण विचित्र विश्‍व प्रतिष्ठित है । युधिष्ठिर नें कहा-परमार्थतत्त्व के ज्ञाता पितामह! मैं समझता हूँ कि वृत्रासुर ने आत्मा के शुभ एंव यथार्थ स्वरूप का साक्षात्कार कर लिया था; इसीलिये वह सुखी था, शोक नहीं करता था ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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