महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 282 श्लोक 1-17
द्वयशीत्यधिकद्विशततम (282) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
वृत्रासुर का वध और उससे प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्माजी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन
भीष्म जी कहते हैं - महाराज ! ज्वर से आविष्ट हुए वृत्रासुर के शरीर में जो लक्षण प्रकट हुए थे, उन्हें मुझसे सुनो । उसके मुख में विशेष जलन होने लगी। उसकी आकृति बड़ी भयानक हो गयी । अंगकान्ति बहुत फीकी पड़ गयी । शरीर जोर-जोर से काँपने लगा तथा बड़े वेग से साँस चलने लगी । नरेश्वर ! उसके सारे शरीर में तीव्र रोमांच हो आया । वह लंबी साँस खींचने लगा। भरतनन्दन ! वृत्रासुर के मुख से अत्यन्त भयंकर अकल्याणस्वरूपा महाघोर गीदड़ी के रूप में उसकी स्मरणशक्ति ही बाहर निकल पड़ी । उसके पार्श्वभाग में प्रज्वलित एवं प्रकाशित उल्काएँ गिरने लगी। गीध, कंक, बगले आदि भयंकर पक्षी अपनी बोली सुनाने लगे और एक-दूसरे से सटकर वत्रासुर के ऊपर चक्र की भाँति घूमने लगे । तदनन्तर महादेवजी के तेज से परिपुष्ट हो वज्र हाथ में लिये हुए इन्द्र ने रथपर बैठकर युद्ध में उस दैत्य की ओर देखा । राजेन्द्र ! इसी समय तीव्र ज्वर से पीड़ित हो उस महान असुर ने अमानुषी गर्जना की और बारंबार जँभाई ली । जँभाई लेते समय ही इन्द्र ने उसके ऊपर वज्र का प्रहार किया। वह महातेजस्वी वज्र कालाग्नि के समान जान पड़ता था । उसने उस महाकाय दैत्य वृत्रासुर को तुरंत ही धराशायी कर दिया[१] । भरत श्रेष्ठ ! फिर तो वृत्रासुर को मारा गया देख चारों ओर से देवताओं का सिहंनाद वहाँ बारंबार गूँजने लगा । दानवशत्रु महायशस्वी इन्द्र ने विष्णु के तेज से व्याप्त हुए वज्र के द्वारा वृत्रासुर का वध करके पुन: स्वर्गलोक में ही प्रवेश किया । कुरूनन्दन ! तदनन्तर वृत्रासुर के मृत शरीर से सम्पूर्ण जगत को भय देने वाली महाघोर एवं क्रूर स्वभाववाली ब्रह्महत्या प्रकट हुई। उसके दाँत बड़े विकराल थे। उसकी आकृति कृ्ष्ण और पिंगल वर्ण की थी। वह देखने में बड़ी भयानक और विकृत रूपवाली थी । भरतनन्दन ! उसके बाल बिखरे हुए थे, नेत्र बड़े भयावने थे। उसके गले में नरमुण्डों की माला थी। भरतश्रेष्ठ ! वह कृत्या-सी जान पड़ती थी । धर्मज्ञ राजेन्द्र ! भरतसत्तम ! उसके सारे अंग रक्त से भीगे हुऐ थे। उसने चीर और वल्कल पहन रखे थे। ऐसे विकराल रूपवाली वह भयानक ब्रह्महत्या वृत्र के शरीर से निकलकर तत्काल ही वज्रधारी इन्द्र को खोजने लगी । कुरूनन्दन ! उस समय वृत्रविनाशक इन्द्र लोकहित की कामना से स्वर्ग की ओर जा रहे थे। महातेजस्वी इन्द्र को युद्ध भूमि से निकलकर जाते देख ब्रह्महत्या कुछ ही काल में उनके पास जा पहुँची । उस ब्रह्महत्या ने देवेन्द्र को पकड़ लिया और वह तुरंत ही उनके शरीर से सट गयी । वह ब्रह्महत्याजनित भय उपस्थित होने पर इन्द्र उससे पिण्ड छुडा़ने के लिये भागे और कमल की नाल के भीतर घुसकर उसी में बहुत वर्षो त्तक छिपे रहे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 280 के 59 वे श्लोक में आया है कि 'वृत्रासुर ने अपने आत्मा को परमात्मा में लगाकर उन्हीं का चिन्तन करते हुए प्राण त्याग दिये और परमेश्वर के परमधाम को प्राप्त कर लिया' - यहाँ भी इतनी बात और समझ लेनी चाहिये।