महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 285 श्लोक 17-31

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पञ्चाशीत्‍यधिकद्विशततम (285) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चाशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद

नेत्र आदि इन्द्रियाँ दर्शन आदि कार्यों के लिये हैं। मन संशय करता है और बुद्धि उस विषय का ठीक-ठीक निश्‍चय करने के लिये है। क्षेत्रज्ञ (आत्‍मा) को साक्षी बताया जाता है। भरतनन्‍दन ! सत्‍व, रज, तम, काल और कर्म – इन पाँच गुणों द्वारा बुद्धि बार-बार विभिन्‍न विषयों की ओर ले जायी जाती हैं। बुद्धि मनसहित सम्‍पूर्ण इन्द्रियों का संचालन करती है। यदि बुद्धि न हो तो ये गुण –इन्द्रिय आदि कैसे कोई कार्य कर सकता है । बुद्धि जिसके द्वारा देखती है, उस इन्द्रिय का नाम दृष्टि या नेत्र है। वही अपने वृत्तिविशेष के द्वारा जब सुनने लगती है, तब श्रोत कहलाती है। गन्‍ध को ग्रहण करते समय वह घ्राण बन जाती है। रसास्‍वादन करते समय रसना कहलाती है और स्‍पर्शों का अनुभव करते समय वही स्‍पर्शेन्द्रिय (त्‍वचा) नाम धारण करती है। इस प्रकार बुद्धि बार-बार विकृत होती है। जब वह कुछ प्रार्थना (याचना) करती है, तब मन बन जाती है । बुद्धि के ये जो पृथक-पृथक पाँच अधिष्‍ठान हैं, इन्‍हीं को इन्द्रिय कहते हैं। इन इन्द्रियों के दूषित होने पर बुद्धि भी दूषित हो जाती है । साक्षी आत्‍मा के आश्रित रहने वाली बुद्धि सात्विक, राजस और तामस तीन भावों में (जो सुख-दु:ख और मोहरूप हैं) स्थित होती हैं, इसीलिये कभी (सत्‍वगुण का उद्रेक होने पर) उसे आनन्‍द प्राप्‍त होता है और कभी (रजोगुण की अधिकता होने पर ) वह दु:ख-शोक का अनुभव करती है । कभी (तमोगुण की अधिकता से मोहाच्‍छन्‍न होने पर) उसका न सुख से संयोग होता है न दु:ख से (वह निद्रा और आलस्‍य आदि में मग्‍न रहती है)। इस प्रकार यह भावात्मिका बुद्धि इन तीन भावों का अनुसरण करती है । जैसे सरिताओं का स्‍वामी समुद्र उत्ताल तरंगों से युक्‍त होने पर भी अपनी तटभूमिका का उल्‍लंघन नहीं करता है उसी प्रकार सात्विक आदि भावों से युक्‍त बुद्धि तीनों गुणों का उल्‍लंघन नहीं करती। भावनामय मन में ही चक्‍कर लगाती रहती है । रजोगुण की प्रवृति होती है तब बुद्धि राजसिक भाव का अनुसरण करती है। यदि पुरूष में किसी प्रकार अधिक हर्ष, प्रीति, आनन्‍द, सुख और चित में शान्ति उपलब्‍ध्‍ा हो तो ये सात्विक गुण है । जब शरीर या मन में किसी कारण से या अकारण ही दाह, शोक, संताप, अपूर्णता (लोभ-लिप्‍सा) और असहनशीलता के भाव दिखायी देते हों तो उन्‍हें रजोगुण के चिन्‍ह समझना चाहिये । यदि किसी प्रकार अविद्या, राग, मोह, प्रमाद, स्‍तब्‍धता, भय, दरिद्रता, दीनता, प्रमोह (मूर्च्‍छा), स्‍वप्‍न, निद्रा और आलस्‍य आदि दोष आ घेरते हों तो उन्‍हें तमोगुण के ही विविध रूप जाने । ऐसी स्थिति में शरीर अथवा मन के भीतर यदि कोई प्रसन्‍नता का भाव हो तो वह सात्विक भाव है, ऐसा विचार करना चाहिये । जब अपने लिये अप्रसन्‍नता का हेतु और दु:खयुक्‍त भाव अनुभव में आये तब रजोगुण की प्रवृति हुई है – ऐसा अपने मन में विचार करे तथा वैसे किसी कार्य का आरम्‍भ न करके उसकी ओर से अपना ध्‍यान हटा लें । इसी प्रकार शरीर या मन में जो मोहयुक्‍त भाव अतर्कित या अविज्ञात रूप से उपस्थित हो गया हो, उसके विषय में यही निश्‍चय करे कि यह तमोगुण है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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