महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 286 श्लोक 14-21
षडशीत्यधिकद्विशततम (286) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सब प्रकार से उपरत महापुरूष दूसरों से कुछ भी नहीं चाहता । भविष्य में होने वाले अर्थ लाभ का भी अभिनन्दन नहीं करता। बहुत-सी सम्पत्ति पाकर हर्षित नहीं होता तथा धनका नाश हो जाने पर भी खेद नहीं करता । बन्धु-बान्धव, धन, उत्तम कुल, शास्त्राध्ययन, मन्त्र तथा पराक्रम -ये सब-के- सब मिलकर भी किसी को दु:ख से छुटकारा नहीं दिला सकते हैं। परलोक में मनुष्य उत्तम स्वभाव के कारण ही शान्ति पाते हैं । जिसका चित्त योगयुक्त नहीं है, उसे समत्व बुद्धि नहीं प्राप्त होती। योग के बिना कोई सुख नहीं पाता है। नरेश्वर ! दु:खों के संबंध का त्याग और धैर्य - ये ही दोनों सुख के कारण हैं । प्रिय वस्तु हर्षजनक होती है। हर्ष अभिमान को बढाता है और अभिमान नरक में ही डुबाने वाला है। इसलिये मैं इन तीनों का त्याग करता हूँ । शोक, भय और अभिमान - ये प्राणियों को सुख-दुख में डालकर मोहित करने वाले हैं; इसलिये जब तक यह शरीर चेष्टा कर रहा है, तब तक मैं इन सबको साक्षी की भाँति देखता हूँ । अर्थ और काम को त्याग कर एवं तृष्णा और मोह का सर्वथा परित्याग करके मैं शोक और संताप से रहित हुआ इस पृथ्वी पर विचरता हूँ । जैसे अमृत पीने वाले को मृत्यु से भय नहीं होता, उसी प्रकार मुझें भी इहलोक या परलोक में मृत्यु, अधर्म, लोभ तथा दूसरे किसी से भी भय नहीं है । ब्रह्मन ! मैंने महान और अक्षय तप करके यही ज्ञान पाया है; अत: नारदजी ! शोक की परिस्थिति उपस्थित होकर भी मुझे व्याकुल नहीं कर सकती ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में समंग और नारदजी का संवाद विषयक दो सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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