महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 290 श्लोक 1-13

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नवत्‍यधिकद्विशततम (290) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

पराशरगीता का आरम्‍भ - पराशर मुनि का राजा जनक को कल्‍याण की प्राप्ति के साधन उपदेश

युधिष्ठिर ने कहा - महाबाहु पितामह ! अब इसके बाद जो भी कल्‍याण-प्राप्ति का उपाय हो, वह मुझे बताइये। जैसे अमृत पीने से मन नहीं भरता, उसी तरह आपके वचन सुनने से मुझे तृप्ति नहीं होती है । पुरूषप्रवर ! इसीलिये मैं पूछता हूँ कि पुरूष कौन-सा शुभ कर्म करे तो इसे इस लोक और परलोंक में भी परम कल्‍याण की प्राप्ति हो सकती है, यह मुझे बताने की कृपा करें । भीष्‍मजी ने कहा- युधिष्ठिर ! इस विषय में भी मैं तुम्‍हें पूर्ववत् एक प्राचीन प्रसंग सुनाऊँगा। एक समय महायशस्‍वी राजा जनक ने महात्‍मा पराशर मुनि से पूछा - 'मुने ! कौन-सी ऐसी वस्‍तु है जो समस्‍त प्राणियों के लिये इहलोक और परलोक में भी कल्‍याणकारी एवं जानने योग्‍य है ? उसे आप मुझे बताइये' । तब सम्‍पूर्ण धर्मों के विधान को जानने वाले वे तपस्‍वी मुनि राजा जनक पर अनुग्रह करने की इच्‍छा से इस प्रकार बोले । पराशरजी ने कहा - राजन ! जैसा कि मनीषी पुरूषों का कथन है, धर्म का ही विधिपूर्वक अनुष्‍ठान किया जाय तो वह इहलोक और परलोक में भी कल्‍याण्‍कारी होता है। उससे बढकर दूसरा कोई श्रेय का उत्‍तम साधन नहीं हैं । नृपश्रेष्‍ठ ! धर्म को जानकर उसका आश्रय लेने वाला मनुष्‍य स्‍वर्गलोक में सम्‍मानित होता है। वेदों में जो 'सत्‍यं वद, धर्म चर, यजेत, जुहुयात' इत्‍यादि वाक्‍यों द्वारा मनुष्‍यों का कर्तव्‍य विधान किया गया है, वही धर्म का लक्षण है । सभी आश्रमों के लोग उस धर्म में ही स्थित रहकर इस जगत में अपने-अपने कर्मों का अनुष्‍ठान करते हैं । तात ! इस लोक में चार प्रकार की जीविका का विधान है (ब्राह्माण के लिये यज्ञादि कराकर दक्षिणा लेना, क्षत्रिय के लिये कर लेना, वैश्‍य के लिये खेती आदि करना और शूद्र के लिये तीनों वर्णों की सेवा करना ) । मनुष्‍य इन्‍हीं चार प्रकार की जीविकाओं का आश्रय लेकर रहते हैं। वह जीविका दैवेच्‍छा से चलती है । जो प्राणी नाना प्रकार के क्रम से पुण्‍य और पापकर्म का सेवन करके पञचत्‍व को प्राप्‍त हो गये हैं अर्थात स्‍थूल शरीर का त्‍याग कर देते हैं, उनको मिलने वाली गति नाना प्रकार की बतायी गयी है । जैसे ताँबे आदि के बर्तनों पर जब सोने और चाँदी की कलई चढा दी जाती है तब वे वैसे ही दिखायी देने लगते हैं। उसी प्रकार पूर्व कर्मों के वशीभूत प्राणी पूर्वकृत कर्म से लिप्‍त रहता है (पूण्‍यकर्म से लिप्‍त होने के कारण वह सुखी होता है और पाप से लिप्‍त होने के कारण उसे दु:ख उठाना पड़ता है) । जैसे बिना बीज के कोई अंकुर पैदा नहीं होता, उसी प्रकार पुण्‍यकर्म किये बिना कोई सुखी या समृद्धिशाली नहीं हो सकता; अत: मनुष्‍य देहत्‍याग के पश्‍चात पुण्‍यकर्मों के फल से ही सुख पाता है । तात ! इस विषय में नास्तिक कहते हैं 'मैं प्रारब्‍ध को प्रत्‍यक्ष नहीं देख पाता तथा प्रारब्‍ध के अस्तित्‍व का सूचक अनुमानप्रमाण भी नहीं है। किंतु देवता, गन्‍धर्व और दानव आदि योनियाँ तो स्‍वभाव से ही प्राप्‍त होती है' ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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