महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 295 श्लोक 1-15

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पञ्चनवत्‍यधिकद्विशततम (295) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चनवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

पराशरगीता - विषयासक्‍त मनुष्‍य का पतन, तपोबल की श्रेष्‍ठता तथा दृढतापूर्वक स्‍वधर्म पालन का आदेश

पराशर जी कहते हैं - तात ! यह मैंने गृहस्‍थ के धर्म का विधान बताया है। अब मैं तपकी विधि बताऊँगा, उसे मेरे मुख से सुनो । नरश्रेष्‍ठ ! गृहस्‍थ पुरूष को प्राय: राजस और तामस भावों के संसर्गवश पदार्थ और व्‍यक्ति में ममता हो जाती है । घर का आश्रय लेते ही मनुष्‍य का गौ, खेती-बारी, धन-दौलत, स्‍त्री-पुत्र तथा भरण-पोषण के योग्‍य अन्‍यान्‍य कुटुम्‍बीजनों से संबंध स्‍थापित हो जाता है । इस प्रकार प्रवृति मार्ग में रहकर वह नित्‍य ही उन वस्‍तुओं को देखता है, किंतु उनकी अनित्‍यता की ओर उसकी दृष्टि नहीं जाती; इसलिये उसके मन में इनके प्रति राग और द्वेष बढने लगते हैं । नरेश्‍वर ! राग और द्वेष के वशीभूत होकर जब मनुष्‍य द्रव्‍य में आसक्‍त हो जाता है, तब मोह की कन्‍या रति उसके पास आ जाती है । तब रति की उपासना में लगे हुए सभी लोग भोगी को ही कृतार्थ मानकर रति के द्वारा जो विषय-सुख प्राप्‍त होता है, उससे बढकर दूसरा कोई लाभ नहीं समझते हैं । तदनन्‍तर उनके मन पर लोभ का अधिकार हो जाता है और वे असाक्तिवश अपने परिजनों की संख्‍या बढाने लगते हैं। इसके बाद उन कुटुम्‍बी जनों के पालन-पोषण के लिये मनुष्‍य के मन में धन-संग्रह की इच्‍छा होती है । यद्यपि मनुष्‍य जानता है कि अमुक काम करना पाप है, तो भी वह धन के लिये उसका सेवन करता है। बाल-बच्‍चों के स्‍नेह में उसका मन डूबा रहता है और उनमेंसे जब कोई मर जाता है तब उनके लिये वह बारंबार संतप्‍त होता है । धन से जब लोक में सम्‍मान बढता है, तब वह मानसम्‍पन्‍न पुरूष सदा अपने अपमान से बचने के लिये प्रयत्‍न करता रहता है एवं 'मैं भोग-सामग्रियों से सम्‍पन्‍न होऊँ' यह उद्देश्‍य लेकर ही वह सारा कार्य करता है और इसी प्रयत्‍न में एक दिन नष्‍ट हो जाता है । वास्‍तव में जो शुभ कर्मों का अनुष्‍ठान तो करते हैं, परंतु उनसे सुख पाने की इच्‍छा को त्‍याग देते हैं, उन समत्‍व-बुद्धि से युक्‍त ब्रह्मवादी पुरूषों को ही सनातन पद की प्राप्ति होती है । पृथ्‍वीनात ! संसारी जीवों को जब उनके स्‍नेह के आधारभूत स्‍त्री-पुत्र आदि का नाश हो जाता, धन चला जाता और रोग तथा चिन्‍ता से कष्‍ट उठाना पड़ता है, तभी वैराग्‍य होता है । राजन ! वैराग्‍य से मनुष्‍य को आत्‍मतत्‍व की जिज्ञासा होती है। जिज्ञासा से शास्‍त्रों में स्‍वाध्‍याय में मन लगता है तथा शास्‍त्रों के अर्थ और भाव के ज्ञान से वह तपको ही कल्‍याण का साधन समझता है । नरेन्‍द्र ! संसार में ऐसा विवेकी मनुष्‍य दुर्लभ है, जो स्‍त्री-पुत्र आदि प्रियजनों से मिलने वाले सुख के न रहने पर तप में प्रवृत होने का ही निश्‍चय करता है । तात ! तपस्‍या में सभी का अधिकार है। जितेन्द्रिय और मनोनिग्रहसम्‍पन्‍न हीन वर्ण के लिये भी तप का विधान हे; क्‍योंकि तप पुरूष को स्‍वर्ग की राह पर लाने वाला है । भूपाल ! पूर्वकाल में शक्तिशाली प्रजापति ने तप में स्थित होकर और कभी-कभी ब्रह्मपरायण व्रत में स्थित होकर संसार की रचना की थी ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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