महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 295 श्लोक 33-39
पञ्चनवत्यधिकद्विशततम (295) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
फिर वह सुख जब नष्ट हो जाता है, तब उसके लिये मन में बड़ी वेदना होती है। इतने पर भी अज्ञानी पुरूष (विषयों में लिप्त रहते हैं, वे) सर्वोतम मोक्ष-सुख की प्रशंसा नहीं करते हैं अर्थात उसे नहीं चाहते । अत: प्रत्येक विवेकी पुरूष के मन में श्रेष्ठ मोक्षफल की प्राप्ति कराने के लिये शम-दम आदि गुणों की उत्पत्ति होती है। निरन्तर धर्म का पालन करने से मनुष्य कभी धन और भोगों से वंचित नहीं रहता । इसलिये गृहस्थ पुरूष को सदा बिना प्रयत्न अपने-आप प्राप्त हुए विषयों का ही सेवन करना चाहिये और प्रयत्न करके तो अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये। यही मेरा मत है । जब उत्तम कुल में उत्पन्न, सम्मानित तथा शास्त्र के अर्थ को जानने वाले पुरूषों का और असमर्थता के कारण कर्म-धर्म से रहित एवं आत्मतत्व से अनभिज्ञ मनुष्यों का भी किया हुआ लौकिक कर्म नष्ट हो ही जाता है, तब यही निष्कर्ष निकलता है कि जगत में उनके लिये तप के सिवा दूसरा कोई सत्कर्म नहीं है । नरेश्वर ! गृहस्थ को सर्वथा अपने कर्तव्य का निश्चय करके स्वधर्म का पालन करते हुए कुशलतापूर्वक यज्ञ तथा श्राद्ध आदि कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिये । जैसे सम्पूर्ण नदियाँ और नद समुद्र में जाकर मिलते हैं, उसी प्रकार समस्त आश्रम गृहस्थ का ही सहारा लेते हैं ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पराशरगीता विषयक दो सौ पंचानबेबाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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