महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 298 श्लोक 1-14
अष्अनवत्यधिकद्विशततम (298) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
पराशरगीता का उपसंहार -राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर
भीष्म जी कहते हैं -युधिष्ठिर ! तदनन्तर मिथिला नरेश जनक ने उन धर्म के विषय में उत्तम निश्चय रखने वाले महात्मा पराशर मुनि से इस प्रकार पूछा । जनक बोले - ब्रह्मन ! श्रेय का साधन क्या है ? उत्तम गति कौन-सी है? कौन-सा कर्म नष्ट नहीं होता तथा कहाँ गया हुआ जीव फिर इस संसार में नहीं लौटता है ? महामते ! मेरे इन प्रश्नों का समाधान कीजिये । पराशर जी ने कहा- राजन् ! आसक्ति का अभाव ही श्रेय का मूल कारण है। ज्ञान ही सबसे उत्तम गति है। स्वयं किया हुआ तप तथा सुपात्र को दिया हुआ दान - ये कभी नष्ट नहीं होते । जो मनुष्य जब अधर्ममय बन्धन का उच्छेद करके धर्म में अनुरक्त हो जाता और सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान कर देता है, उसे उसी समय उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है । जो एक हजार गौ तथा एक सौ घोड़े दान करता है तथा दूसरा जो सम्पूर्ण भूतों को अभयदान देता है, वह सदा गौ और अश्वदान करने वाले से बढा-चढा रहता है । बुद्धिमान पुरूष विषयों के बीच में रहता हुआ भी (असंग होने के कारण ) उनमें नहीं रहने के बाराबर ही है; किंतु जिसकी बुद्धि दूषित होती है, वह विषयों के निकट न होने पर भी सदा उन्हीं में रहता है । जैसे पानी कमल के पत्ते को लिपायमान नहीं कर सकता, उसी प्रकार ज्ञानी पुरूषों को अधर्म लिप्त नहीं कर सकता; परंतु जैसे लाह काठ में चिपक जाती है, उसी प्रकार पाप अज्ञानी मनुष्य में अधिक लिप्त हो जाता है । अधर्म फल प्रदान के अवसर की प्रतीक्षा करने वाला है, अत: वह कर्ता का पीछा नहीं छोड़ता । समय आने पर उस कर्ता को उस पाप का फल अवश्य भोगना पड़ता है । पवित्र अन्त:करण वाले आत्मज्ञानी पुरूष कर्मों के शुभाशुभ फलों से कभी विचलित नहीं होते हैं। जो प्रमादवश ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों द्वारा होने वाले पापों पर विचार नहीं करता तथा शुभ एवं अशुभ में आसक्त रहता है, उसे महान भय की प्राप्ति होती है । परंतु जो वीतराग होकर क्रोध को जीत लेता और नित्य सदाचार का पालन करता है, वह विषयों में वर्तमान रहकर भी पापकर्म से संबंध नहीं जोड़ता है । जैसे नदी में बँधा हुआ मजबूत बॉंध टूटता नहीं है और उसके कारण वहाँ जल का स्त्रोत बढता रहता है, उसी प्रकार मर्यादा पर बँधा हुआ धर्मरूपी बाँध नष्ट नहीं होता है तथा उससे आसक्ति रहित संचित तप की वृद्धि होन लगती है । नृपश्रेष्ठ ! जिस प्रकार शुद्ध सूर्यकान्तमणि सूर्य के तेज को ग्रहण कर लेती है, उसी प्रकार योग का साधक समाधि के द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को ग्रहण करता है । जैसे तिलका तेल भिन्न-भिन्न प्रकार के सुगन्धित पुष्पों से वासित होकर अत्यन्त मनोरम गन्ध ग्रहण करता है, वैसे ही पृथ्वी पर शुद्धचित्त पुरूषों का स्वभाव सत्पुरूषों के संग के अनुसार सत्व गुण सम्पन्न हो जाता है । जिस समय मनुष्य सर्वोत्तम पद पाने के लिये उत्सुक हो जाता है, उस समय उसकी बुद्धि विषयों से विलग हो जाती है तथा वह स्त्री, सम्पत्ति, पद, वाहन और नाना प्रकार की जो क्रियाऍं हैं, उनका भी परित्याग कर देता है ।
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