महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 299 श्लोक 27-39
नवनवत्यधिकद्विशततम (299) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
क्रोधी मनुष्य जो यज्ञ करता है, दान देता है, तप करता है अथवा जो हवन करता है, उसके उन सब कर्मो के फल को यमराज हर लेते हैं। क्रोध करने वाला का वह किया हुआ सारा परिश्रम व्यर्थ जाता है । देवेश्वरो ! जिस पुरूष के उपस्थ, उदर, दोनों हाथ और वाणी – ये चारों द्वार सुरक्षित होते हैं, वही धर्मज्ञ है । जो सत्य, इन्द्रिय-संयम, सरलता, दया, धैर्य और क्षमा का अधिक सेवन करता है, सदा स्वाध्याय में लगा रहता है, दूसरे की वस्तु नहीं लेना चाहता तथा एकान्त में निवास करता है, वह ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है । जैसे बछड़ा अपनी माता के चारों स्तनों का पान करता है, उसी प्रकार मनुष्य को उपर्युक्त सभी सद्गुणों का सेवन करना चाहिये। मैंने अब तक सत्य से बढकर परम पावन वस्तु कहीं किसी को नही समझा है । मैं चारों ओर घूमकर मनुष्यों और देवताओं से कहा करता हूँ कि जैसे जहाज समुद्र से पार होने का साधन है, उसी प्रकार सत्य ही स्वर्ग लोक में पहुँचने की सीढी है । पुरूष जैसे लोगो के साथ रहता है, जैसे मनुष्यों का सेवन करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही होता है । जैसे वस्त्र जिस रंग में रँगा जाय, वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोर का सेवन करता है तो वह उन्हीं-जैसा हो जाता है अर्थात उस पर उन्हीं का रंग चढ जाता है । देवता लोग सदा सत्पुरूषों का संग-उन्हीं के साथ वार्तालाप करते हैं; इसीलिये वे मनुष्यों के क्षणभंगुर भोगों की ओर देखने भी नहीं जाते। जो विभिन्न विषयों के नश्वर स्वभाव को ठीक-ठीक जानता है, उसकी समानता न चन्द्रमा कर सकते हैं न वायु । हृदय गुफा में रहने वाला अन्तर्यामी आत्मा जब दोषभाव से रहित हो जाता है, उस अवस्था में उसका साक्षात्कार करने वाला पुरूष सन्मार्गगामी समझा जाता है। उसकी इस स्थिति से ही देवता प्रसन्न होते हैं । किंतु जो सदा पेट पालने और उपस्थ इन्द्रियों के भोग भोगने में ही लगे रहते हैं तथा जो चोरी करने एवं सदा कठोर वचन बोलने वाले हैं, वे यदि प्रायश्चित आदि के द्वारा उक्त कर्मों के दोष से छूट जायें तो भी देवतालोग उन्हें पहचानकर दूर से ही त्याग देते हैं । सत्वगुण से रहित और सब कुछ भक्षण करने वाले पापाचारी मनुष्य देवताओं को संतुष्ट नहीं कर सकते। जो मनुष्य नियमपूर्वक सत्य बोलने वाले, कृता और धर्मपरायण हैं, उन्हीं के साथ देवता स्नेह-संबंध स्थापित करते हैं । व्यर्थ बोलने की अपेक्षा मौन रहना अच्छा बताया गया है, (यह वाणी की प्रथम विशेषता है ) सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है, प्रिय बोलना वाणी की तीसरी विशेषता है। धर्मसम्मत बोलना यह वाणी की चौथी विशेषता है । (इनमें उत्तरोंतर श्रेष्ठता है) । साध्यों ने पूछा – हंस ! इस जगत को किसने आवृत कर रखा है ? किस कारण से उसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता है ? मनुष्य किस हेतु से मित्रों का त्याग करता है ? और किस दोष से वह स्वर्ग में नहीं जाने पाता ?
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