महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 300 श्लोक 1-16
त्रिशततम (300) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सांख्य और योग का अन्तर बतलाते हुए योगमार्ग के स्वरूप साधन,फल और प्रभाव का वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा – तात ! धर्मज्ञ कुरूश्रेष्ठ ! सांख्य और योग में क्या अन्तर है ? यह बताने की कृपा करें; क्योंकि आपको सब बातों का ज्ञान है । भीष्म जी ने कहा –युधिष्ठिर ! सांख्य के विद्वान सांख्य की और योग के ज्ञाता द्विज योग की प्रशंसा करते हैं। दोनों ही अपने-अपने पक्ष की उत्कृष्टता सूचित करने के लिये उत्तमोत्तम युक्तियों का प्रतिपादन करते हैं । शत्रुसूदन ! योग के मनीषी विद्वान अपने मत की श्रेष्ठता बताते हुए यह युक्ति उपस्थित करते हैं कि ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार किये बिना किसी की भी मुक्ति कैसे हो सकती है ? (अत: मोक्षदाता ईश्वर की सत्ता अवश्य स्वीकार करनी चाहिये ) । सांख्यमत के मानने वाले महाज्ञानी द्विज मोक्ष का युक्तियुक्त कारण इस प्रकार बताते हैं-सब प्रकार की गतियों को जानकर जो विषयों से विरक्त हो जाता है, वही देहत्याग के अनन्तर मुक्त होता है। यह बात स्पष्ट रूप से सबकी समझ में आ सकती है। दूसरे किसी उपाय से मोक्ष मिलना असम्भव है। इस प्रकार वे सांख्य को ही मोक्ष दर्शन कहत हैं । अपने-अपने पक्ष में युक्ति युक्त कारण ग्राहृय होता है तथा सिद्धन्त के अनुकूल हितकारक वचन मानने योग्य समझा जाता है। शिष्ट पुरूषो द्वारा सम्मानित तुम- जैसे लोगों को श्रेष्ठ पुरूषों का ही मत ग्रहण करना चाहिये । योग के विद्वान प्रधानतया प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानने वाले होते हैं और सांख्य मतानुयायी शास्त्र-प्रमाण पर ही विश्वास करते हैं। तात युधिष्ठिर ! ये दोनों ही मत मुझे तात्त्विक जान पड़ते हैं । नरेश्वर ! इन दोनों मतों का श्रेष्ठ पुरूषों ने आदर किया है। इन दोनों ही मतों को जानकर शास्त्र के अनुसार उनका आचरण किया जाय तो वे परमगति की प्राप्ति कर सकते हैं । बाहर-भीतर की पवित्रता, तप, प्राणियों पर दया और व्रतों का पालन आदि नियम दोनों मतों में समान रूप से स्वीकार किये गये हैं। केवल उनके दर्शनों में अर्थात पद्धतियोंमें समानता नहीं है । युधिष्ठिर ने पूछा – पितामह ! यदि इन दोनों मतों में उत्तम व्रत, बाहर-भीतर की पवित्रता और दया समान है एवं दोनों का परिणाम भी एक ही है तो इनके दर्शन में समानता क्यों नही है, यह मुझे बताइये । भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर ! योगी पुरूष केवल योगबल से राग, मोह, स्नेह, काम और क्रोध- इन पाँच दोषों का मूलोच्छेद करके परमपद को प्राप्त कर लेते हैं । जैसे बड़े-बड़े और मोटे मत्स्य जाल को काटकर फिर जलमें समा जाते हैं, उसी प्रकार योगी अपने पापों का नाश करके परमात्मपद को प्राप्त करते हैं । राजन ! इसी प्रकार जैसे बलवान मृग जाल तोड़कर सारे बन्धनों से मुक्त हो निर्विध्न मार्गपर चले जाते हैं, वैसे ही योगबल से सम्पन्न योगी पुरूष लोभजनित सब बन्धनों को तोड़कर परम निर्मल कल्याणमय मार्ग को प्राप्त कर लेते हैं । नरेश्वर ! जैसे निर्बल मृग तथा दूसरे पशु जाल में पड़कर निस्सन्देह नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार योगबल से रहित मनुष्य की भी दशा होती है । कुन्तीनन्दन राजेन्द्र ! जैसे निर्बल मत्स्य जाल में फँसकर वध को प्राप्त होते हैं, वही दशा योगबल से सर्वथा रहित मनुष्यों की भी होती है ।
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