महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 302 श्लोक 38-49
द्वयदिकत्रिशततम (302) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इन चौबीस तत्वों से परे जो भगवान विष्णु (सर्वव्यापी परमात्मा ) हैं, उन्हें पचीसवाँ तत्व कहा गया है। तत्वों को आश्रय देने के कारण ही मनीषी पुरूष उन्हें तत्व कहते हैं । महतत्व आदि व्यक्त पदार्थ जिन मरणशील (नश्वर) पदार्थों की सृष्टि करते हैं, वे किसी-न-किसी आकार या मूर्तिका आश्रय लेकर स्थित होते हैं। गणना करने पर चौबीसवाँ तत्व है अव्यक्त प्रकृति और पचीसवाँ है निराकार परमात्मा । जो अद्वितीय, चेतन, नित्य, सर्वस्वरूप, निराकार एवं सबके आत्मा हैं, वे परम पुरूष परमात्मा ही समस्त शरीरों के हृदयदेश में निवास करते हैं । यद्यपि सृष्टि और प्रलय प्रकृति के ही धर्म हैं। पुरूष तो उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित है तथापि उस प्रकृति के संसर्गवश पुरूष भी उस सृष्टि और प्रलयरूप धर्म से सम्बद्ध-सा जान पड़ता है। इन्द्रियों का विषय न होने पर भी इन्द्रियगोचर-सा हो जाता है तथा निर्गुण होने पर भी गुणवान-सा जान पड़ता है । इस प्रकार सृष्टि और प्रलय के तत्व को जानने वाला यह महान आत्मा अविकारी होकर भी प्रकृति के संसर्ग से युक्त हो विकारवा-सा हो जाता है एवं प्राकृत-बुद्धि से रहित होने पर भी शरीर में आत्माभिमान कर लेता है । प्रकृति के संसर्गवश ही वह सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से युक्त हो जाता है तथा अज्ञानी मनुष्यों का संग करने से उन्हीं की भांति अपने को शरीरस्थ समझने के कारण वह उन-उन सात्विक, राजस, तामस योनियों में जन्म ग्रहण करता है । प्रकृति के सहवास से अपने स्वरूप का बोध लुप्त हो जाने के कारण पुरूष यह समझने लगता है कि मैं शरीर से भिन्न नहीं हूँ। ‘मैं यह हूँ, वह हूँ, अमुक का पुत्र हूँ, अमुक जातिका हूँ’, इस प्रकार कहता हुआ वह सात्विक आदि गुणों का ही अनुसरण करता है । वह तमोगण से मोह आदि नाना प्रकार के तामस भावों को, रजोगुण से प्रकृति आदि राजस भावों को तथा सत्वगणु का आश्रय लेकर प्रकाश आदि सात्विक भावों को प्राप्त होता है । सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से क्रमश: शुक्ल, रक्त और कृष्ण –ये तीन वर्ण प्रकट होते हैं। प्रकृति से जो-जो रूप प्रकट हुए हैं, वे सब इन्हीं तीनों वर्णों के अन्तर्गत हैं । तमोगुणी प्राणी नरक में पड़ते हैं, राजस स्वभाव के जीव मनुष्य लोक मे जाते हैं तथा सुख के भागी सात्विक पुरूष देवलोक को प्रस्थान करते हैं । अत्यन्त केवल पापकर्मों के फलस्वरूप जीव पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनि को प्राप्त होता है। पुण्य और पाप दोनों के सम्मिश्रण से मनुष्यलोक मिलता है तथा केवल पुण्य से प्राणी देवयोनि को प्राप्त होता है । इस प्रकार ज्ञानी पुरूष प्रकृति से उत्पन्न हुए पदार्थों को क्षर कहते हैं। उपर्युक्त चौबीस तत्वों से भिन्न जो पचीसवाँ तत्व –परमपुरूष परमात्मा बताया गया है, वही अक्षर है। उसकी प्राप्ति ज्ञान से ही होती है ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में वसिष्ठ और करालजनक का संवाद विषयक तीन सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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