महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 303 श्लोक 33-49

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त्रयधिकत्रिशततम (303) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयधिकत्रिशततम अध्याय श्लोक 33-49 का हिन्दी अनुवाद

सृष्टि और प्रलय जिसके धर्म हैं, उस त्रिगुणमयी प्रकृति को विकृत करके तीनों गुणों का स्‍वामी आत्‍मा कर्ममार्ग में अनुरक्‍त और प्रवृत हो उस प्रकृति के द्वारा होने वाले प्रत्‍येक त्रिगुणात्‍मक कार्य को अपना मान लेता है । प्रभो ! प्रकृति ने इस सम्‍पूर्ण जगत को अन्‍धा बना रखा है। उसी के संयोग से समस्‍त पदार्थ अनेक प्रकार से रजोगुण और तमोगुण से व्‍याप्‍त हो रहैं हैं । इस प्रकार प्रकृति की प्ररेणा से स्‍वभावत: सुख-दु:खादि द्वन्‍द्वों की सदा पुनरावृति होती रहती है; किंतु जीवात्‍मा अज्ञानतावश यह मान बैठता है कि ये सारे द्वन्‍द्व मुझ पर ही धावा करते हैं और मुझे इनसे निस्‍तार पाने की चेष्‍टा करनी चाहिये। (ऐसा मानकर वह दुखी होता है) नरेश्‍वर ! प्रकृति से संयुक्‍त हुआ पुरूष अज्ञानवश यह मान लेता है कि मैं देवलोक में जाकर अपने समस्‍त पुण्‍यों के फल का उपभोग करूँगा और पूर्वजन्‍म के किये हुए शुभाशुभ कर्मो का जो फल प्रकट हो रहा है, उसे यही भोगूँगा । अ‍ब मुझे सुख के साधन भूत पुण्‍य का ही अनुष्‍ठान करना चाहिये। उसका एक बार भी अनुष्‍ठान कर लेने पर मुझे आजीवन सुख मिलेगा तथा भविष्‍य में भी प्रत्‍येक जन्‍म में सुख की प्राप्ति होती रहेगी । यदि इस जन्‍म में बुरे कर्म करूँगा तो मुझे यहाँ भी अनन्‍त दु:ख्‍ भोगना पड़ेगा । यह मानव-जन्‍म महान दु:ख से भरा हुआ हैं। इसके सिवा पाप के फल से नरक में भी डूबना पड़ेगा । नरक से दीर्घकाल के बाद छुटकारा मिलने पर मैं पुन: मनुष्‍यलोक में जन्‍म लूँगा। मानवयोनि से पुण्‍य के फलस्‍वरूप देवयोनि में जाऊँगा और वहाँ से पुण्‍य-क्षीण्‍ होने पर पुन: मानव-शरीर में जन्‍म लूँगा । इसी तरह बारी-बारी से वह जीव मानव-योनि से नरक में (और नरक से मानवयोनि में ) आता-जाता रहता है। आत्‍मा से भिन्‍न तथा आत्‍मा के गुण चैतन्‍य आदि से युक्‍त जो इन्द्रियों का समुदाय शरीर में ऐसी भावना रखता है कि ‘यह मैं हूँ’ वही देवलाक, मनुष्‍यलोक, नरक तथा तिर्यग्‍योनि में जाता है । स्‍त्री–पुत्र आदि के प्रति ममता से बँधा हुआ पुरूष उन्‍हीं के संसर्ग में रहकर सहस्‍त्र-सहस्‍त्र कोटि सृष्टिपर्यन्‍त नश्‍वर शरीरों में ही सदा चक्‍कर लगाता रहता है । जो इस प्रकार शुभाशुभ फल देनेवाला कर्म करता है, वही तीनों लोकों में शरीर धारण करके इन उपर्युक्‍त फलों को पाता है । वास्‍तव में तो प्रकृति ही शुभाशुभ फल देने वाले कर्मों का अनुष्‍ठान करती है और तीनों लोकों में इच्‍छानुसार विचरण करनेवाली वह प्रकृति ही उन कर्मों का फल भोगती है (किंतु पुरूष अज्ञान के कारण कर्ता-भोक्‍ता बन जाता है) । तिर्यग्‍योनि, मनुष्‍ययोनि तथा देवलोक में देवयोनि ये कर्म-फल-भोग के तीन स्‍थान हैं। इन सबको प्राकृत समझो । मुनिगण प्रकृति को लिंगरहित बताते हैं; किेंतु हमलोग विशेष हेतुओं के द्वारा ही उसका अनुमान कर सकते है। इसी प्रकार अनुमान द्वारा ही हमें पुरूष के स्‍वरूप का अर्थात उसके होने का ज्ञान होता है । पुरूष स्‍वयं छिद्ररहित होते हुए भी प्रकृतिनिर्मित चिन्‍ह स्‍वरूप विभिन्‍न शरीरों का अवलम्‍बन करके छिद्रों में स्थित रहने वाली इन्द्रियों का अधिष्‍ठाता बनकर उन सबके कर्मों को अपने में मान लेता है । इस जगत में श्रोत्र आदि पांच ज्ञानेन्द्रियां और वाक आदि पांच कर्मेन्द्रियां अपने-अपने गुणों के साथ गुणमय शरीरों मे स्थित है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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