महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 304 श्लोक 1-11
चतुरधिकत्रिशततम (304) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
प्रकृति के संसर्ग दोष से जीवन का पतन
वसिष्ठ जी कहते हैं – राजन ! इस तरह अज्ञान के कारण अज्ञानी पुरूषों का संग करने से जीव का निरन्तर पतन होता है तथा उसे हजारो-करोड़ बार जन्म लेने पड़ते हैं । वह पशु-पक्षी, मनुष्य तथा देवताओं की योनियों में तथा एक स्थान से सहस्त्रों स्थानों में बारंबार मरकर जाता और जन्म लेता है । जैसे चन्द्रमा का सहस्त्रों बार क्षय और सहस्त्रों बार वृद्धि होती रहती है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव भी अज्ञानवश ही सहस्त्रों बार लय को प्राप्त होता है (और जन्म लेता है) । राजन ! चन्द्रमा की पंद्रह कलाओं के समान जीवों की पंद्रह कलाएं ही उत्पत्ति के स्थान हैं। अज्ञानी जीव उन्हीं को अपना आश्रय समझता है; परंतु उसकी जो सोलहवीं कला है, उसको तुम नित्य समझो। वह चनद्रमा की अमा नामक सोलहवीं कला के समान है। अज्ञानी जीव सदा बारंबार उन्हीं कलाओं में स्थित हुआ जन्म ग्रहण करता है। वे ही कलाएं जीव के आश्रय लेने योग्य हैं, अत: जीव का उन्हीं से पुन:-पुन: जन्म होता रहता है । अमा नामक जो सोलहवीं सूक्ष्म कला है, वही सोम है अर्थात जीव की प्रकृति है, यह तुम निश्चितरूप से जान लो। देवता लोक अर्थात अन्त:करण और इन्द्रियगण जिनको पंद्रह कलाओं के नाम से कहा गया, वे उस सोलहवीं कला का उपयोग नहीं कर सकते; किंतु वे सोलहवीं कला अर्थात उन सबकी कारणभूता प्रकृति ही उनका उपयोग करती है । नृपश्रेष्ठ ! जीव अपने अज्ञानवश उस सोलहवीं कलारूप प्रकृति के संयोग का क्षय नहीं कर पाता, इसलिये बारंबार जन्म ग्रहण करता है। वह ही कला जीव की प्रकृति अर्थात उत्पत्ति का कारण देखी गयी है। उसके संयोग का क्षय होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति बतायी जाती है । (मूल प्रकृति, दस इन्द्रियां – एक प्राण और चार प्रकार का अन्त:करण-इन ) सोलह कलाओं से युक्त जो यह सूक्ष्मशरीर है, इसे ‘यह मेरा है’ ऐसा मानने के कारण अज्ञानी जीव उसी में भटकता रहता है । पचीसवाँ तत्वरूप जो महान आत्मा है, वह निर्मल एवं विशुद्ध है। उसको न जानने के कारण तथा शुद्ध-अशुद्ध वस्तुओं के सेवन से वह निर्मल, संगरहित आत्मा भी शुद्ध और अशुद्ध वस्तुओं के सदृश हो जाता है। पृथ्वीनाथ ! अविवेकी के संग से विवेकशील भी अविवेकी हो जाता है । नृप श्रेष्ठ ! इसी प्रकार मूर्ख भी विवेकशील का संग करने से विवेकशील हो जाता है, ऐसा समझना चाहिये। त्रिगुणात्मिका का प्रकृति के संबंध से निर्गुण आत्मा भी त्रिगुणमय-सा हो जाता है ।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में वसिष्ठ और करालजनक का संवादविषयक तीन सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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