महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 306 श्लोक 14-30

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षडधिकत्रिशततम (306) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षडधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 14-30 का हिन्दी अनुवाद

मिथिलेश्वर ! जब योगी मन के द्वारा सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को और बुद्धि के द्वारा मनको स्थिर करके पत्‍थरकी भाँति अविचल हो जाय, सूखे काठकी भाँति निष्‍कम्‍प और पर्वत की तरह स्थिर रहने लगे तभी शास्‍त्र के विधानको जानने वाले विद्वान पुरूष अपने अनुभव से ही उसको योगयुक्‍त कहते हैं । जिस समय वह न तो सुनता हैं, न सूँघता है, न स्‍वाद लेता है, न देखता है और न स्‍पर्शका ही अनुभव करता है, जब उसके मनमें किसी प्रकारका संकल्‍प नहीं उठता तथा काठकी भाँति स्थित होकर वह किसी भी वस्‍तुका अभिमान या सुध-बुध नहीं रखता, उसी समय मनीषी पुरूष उसे अपने शुद्धस्‍वरूप को प्राप्‍त एवं योगयुक्‍त कहते हैं । उस अवस्‍था में वह वायुरहित स्‍थानमें रखे हुए निश्‍चल भाव से प्रज्‍वलित दीपककी भाँति प्रकाशित होता है। लिंग शरीर से उसका कोई सम्‍बन्‍ध नहीं रहता। वह ऐसा निश्‍चल हो जाता है कि उसकी ऊपर-निचे अथवा मध्‍यमें कहीं भी गति नहीं होती । जिनका साक्षात्‍कार कर लेनेपर मनुष्‍य कुछ बोल नहीं पाता, योगकालमें योगी उसी परमात्‍माको देखे। वत्‍स ! मुझे-जैसे लोगों को अपने-अपने हृदयमें स्थित सब के ज्ञाता अन्‍तरात्‍मा का ही ज्ञान प्राप्‍त करना उचित है। ध्‍याननिष्‍ठ योगीको अपने हृदय में उसी प्रकार परमात्‍मा का साक्षात् दर्शन होता है जैसे धूमरहित अग्नि का, किरणमालाओं से मण्डित सूर्य का तथा आकाश में विद्युत् के प्रकाश का दर्शन होता है।धैर्यवान्, मनीषी, ब्रह्माबोधक शास्‍त्रों में निष्‍ठा रखने वाले और महात्‍मा ब्राह्माण ही उस अजन्‍मा एवं अमृतस्‍वरूप ब्रह्मा का दर्शन कर पाते हैं । वह ब्रह्मा अणु से भी अणु और महान् से भी महान् कहा गया है। सम्‍पूर्ण प्राणियों के भीतर वह अन्‍तर्यामीरूप से अवश्‍य स्थिर रहता हे तथापि किसी को दिखायी नहीं देता है । सूक्ष्‍म बुद्धिरूप धन-सम्‍पन्‍न पुरूष ही मनोमय दीपक के द्वारा उस लोकस्‍त्रष्‍ठा परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर सकते हैं। वह परमात्‍मा महान् अन्‍धकार से परे और तमोगुण से रहित है; इसलिये वेदके पारगामी सर्वज्ञ पुरूषों ने उसे तमोनुद (अज्ञान नाशक) कहा है। वह निर्मल, अज्ञानरहित लिंगहीन और अलिंग नाम से प्रसिद्ध (उपाधिशून्‍य) है। योगियों का योग है। इसके सिवा योग का क्‍या लक्षण हो सकता है। इस तरह साधना करनेवाले योगी सब के द्रष्‍टा अजर-अमर परमात्‍मा का दर्शन करते हैं । यहाँतक मैंने तुम्‍हें यर्थारूप से योग-दर्शन की बात बतायी है, अब सांख्‍यका वर्णन करता हूँ; य‍ह विचारप्रधान दर्शन है । नृपश्रेष्‍ठ ! प्रकृतिवादी विद्वान् मूल प्रकृतिको अव्‍यक्‍त कहते हैं। उससे दूसरा तत्‍व प्रकट हुआ, जिसे महतत्‍व कहते हैं । महतत्‍व से अहंकार प्रकट हुआ, जो तीसरा तत्‍व है। ऐसा हमारे सुननेमें आया है। अहंकारसे पाँच सूक्ष्‍म भूतोंकी अर्थात् पंचतन्‍मात्राओं की उत्‍पत्ति हुई; यह सांख्‍यात्‍मदर्शी विद्वानोंका कथन है । ये आठ प्रकृतियाँ हैं। इनसे सोलह तत्‍वों की उत्‍पत्ति होती है, जिन्‍हें विकार कहते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन और पाँच स्‍थूलभूत- ये सोलह विकार हैं। इनमें से आकाश आदि पाँच तत्‍व और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ – ये विशेष कहलाते हैं । सांख्‍यशास्‍त्रीय विधि- विधान के ज्ञाता और सदा सांख्‍यमार्ग में ही अनुरक्‍त रहने वाले मनीषी पुरूष इतनी ही सांख्‍यसम्‍मत तत्‍वोंकी संख्‍या बतलाते हैं। अर्थात् अव्‍यक्‍त, महतत्‍व, अहंकार तथा पंचतन्‍मात्रा- इन आठ प्रकृतियोंसहित उपर्युक्‍त सोलह विकार मिलकर कुल चौबीस तत्‍व सांख्‍यशास्‍त्र के विद्वानों ने स्‍वीकार किये हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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