महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-19
त्रिंश (30) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान
युधिष्ठिर ने पूछा - भगवन् ! पर्वत मुनि ने राजा सृंजय को सुवर्णष्ठीवी नामक पुत्र किसलिये दिया और वह क्यों मर गया ?। जब उस समय मनुष्य की एक हजार वर्ष की आयु होती थी, तब सृंजय का पुत्र कुमारावस्था आने से पहले ही क्यों मर गया ? उस बालक का नाममात्र ही सुवर्णष्ठीवी था या उसमें वैसा ही गुण भी था। सुवर्णष्ठीवी नाम पड़ने का कारण क्या था ? यब सब मैं जानना चाहता हूँ। श्रीकृष्ण बोले - जनेश्वर ! इस विषय में जो बात है, वह यथाथ। रूप सं बता रहा हूँ, सुनिये। नारद और पर्वत- ये दोनों ऋषि सम्पूर्ण लोकों में श्रेष्ठ हैं। ये दोनों परस्पर माना और भानजे लगते हैं। प्रभो ! पहले की बात है ये दोनों महर्षि मनुष्यलोक में भ्रमण करने के लिये प्रेमपूर्वक देवलोक से यहाँ आये थे वे यहाँ पवित्र हविष्य तथा देवताओं के भोजन करने योग्य पदार्थ खाकर रहते थे। नारदजी मामा हैं और पर्वत इनके भानजे हैं। वे दोनों तपस्वी पृथ्वीतल पर विचरते और मानवीय भोगों का उपभोग करते हुए यहाँ यथावत् रूप से परिभ्रमण करने लगे। उन दोनों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रेम पूर्वक यह शर्त कर रखी थी कि हम लोगों के मन में शुभ या अशुभ जो भी संकल्प प्रकट हो, उसे हम एक दूसरे से कह दें; अन्यथा झूठे ही शाप का भागी होना पड़ेगा। वे दोनों लोकपूजित महर्षि ‘तथास्तु’ कहकर पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करने के पश्चात् श्वेतपुत्र राजा सृंजय के पास जाकर इस प्रकार बोले- ‘भूपाल ! हम दोनों तुम्हारे हित के लिये कुछ काल तक तुम्हारे पास ठहरेंगे। तुम हमारे अनुकूल होकर रहो। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर राजा ने उन दोनों का सत्कार पूर्वक पूजन किया। तदनन्तर एक दिन राजा सृंजय ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन दोनों तपस्वी महात्माओं से कहा- ‘महर्षियों ! यह मेरी एक ही कन्या है, जो परम सुन्दरी, दर्शनीय, निर्दोष अंगों वाली तथा शील और सदाचार से सम्पन्न कुमारी आज से आप दोनों की सेवा करेगी। तब उन दोनों ने कहा- ‘बहुत अच्छा।’ इसके बाद राजा ने उस कन्या को आदेश दिया- ‘बेटी ! तुम दोनों महर्षियों की देवता और पितरों के समान सेवा किया करो’। धर्माचरण में तत्पर रहने वाली उस कन्या ने पिता से ‘ऐसा ही होगा’ यों कहकर राजा की आज्ञा के अनुसार उन दोनों की सत्कार पूर्वक सेवा आरम्भ कर दी। उसकी उस सेवा तथा अनुपम सौन्दर्य से नारद के हृदय में सहसा काम भाव का संचार हो गया। उन महामनस्वी नारद के हृदय में काम उसी प्रकार धीरे-धीरे बढ़ने लगा, जैसे शुक्लपक्ष आरम्भ होने पर शनैः-शनैः चन्द्रमा की वृद्धि होती है। धर्मज्ञ नारद ने लज्जावश भानजे महात्मा पर्वत को अपने बढ़े हुए दुःसह काम की बात नहीं बतायी। परंतु पर्वत ने अपनी तपस्या और नारदजी की चेष्टाओं से जान लिया कि नारद काम वेदना से पीडि़त हैं; फिर तो उन्होंने अत्यनत कुपित हो उन्हें शाप देते हुए कहा।
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