महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 319 श्लोक 1-15
एकोनविंशत्यधिकत्रिशततम (319) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जरा-मृत्यु का उल्लंघन करने के विषय में पंच शिख और राजा जनक का संवाद
युधिष्ठिरने पूछ—भरतश्रेष्ठ ! महान् ऐश्वर्य या प्रचुर धन अथवा बहुत बड़ी आयु पाकर मनुष्य किस तरह मृत्यु का उल्लंघन कर सकता है ? । वह गुरूतर तपस्या करके, महान् कर्मों का अनुष्ठान करके, वेद-शास्त्रों का अध्ययन करके अथवा नाना प्रकार के रसायनों का प्रयोग करके किन उपायों द्वारा जरा और मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है ? भीष्मजी ने कहा—युधिष्ठिर ! इस विषय में विद्वान् पुरूष सन्यासी पंचशिख तथा राजा जनक के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, विदेहदेश के राजा जनक ने वेद-वेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि पंचशिख से, जिनके धर्म और अर्थ-विषयक संदेह नष्ट हो गये थे, इस प्रकार प्रश्न किया—‘भगवान् ! किस आचार, तपस्या, बुद्धि, कर्म अथवा शास्त्रज्ञान के द्वारा मनुष्य जरा और मृत्यु को लाँघ सकता है ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर अपरोक्ष ज्ञान से सम्पन्न महर्षि पंचशिख ने विदेहराज को इस प्रकार उत्तर दिया—‘जरा और मृत्यु की निवृत्ति नहीं होती है, परंतु ऐसा भी नहीं है कि किसी प्रकार उनकी निवृत्ति हो ही नहीं सकती (धन और ऐश्वर्य आदि से उनकी निवृत्ति नहीं होती, परंतु ज्ञान से तो पुनर्जन्म की भी निवृत्ति हो जाती है; फिर जरा और मृत्यु की तो बात ही क्या ?) दिन, रात और महीनों के जो चक्र चल रहे हैं, वे किसी के टाले नहीं टलते हैं । इसी प्रकार जन्म, मृत्यु और जरा आदि के प्राय: चलते ही रहते हैं। जिसके जीवन का कुछ ठिकाना नहीं, वह मरणधर्मा मानव कभी दीर्घ-काल के पश्चात् नित्यपथ (मोक्षमार्ग) का आश्रम लेता है। काल समस्त प्राणियों का उच्छेद कर डालता है । जैसे जल का प्रवाह किसी वस्तु को बहाये लिये जाता है, उसी प्रकार काल सदा ही प्राणियों को अपने वेग से बहाया करता है । यह काल बिना नौका के समुद्र की भाँति लहरा रहा है । जरा और मृत्यु विशाल ग्राह का रूप धारण करके उसमें बैठे हुए हैं । उस काल-सागर में बहते और डूबते हुए जीव को कोई भी नही बचा नहीं सकता। यहाँ इस जीवन का कोई भी अपना नहीं है और वह भी किसी का अपना नहीं है। रास्ते में मिले हुए राहगीरों के समान यहाँ पत्नी तथा अन्य बन्धु-बान्धवों का साथ हो जाता है, परंतु यहाँ पहले कभी किसी नें किसी के साथ चिरकाल तक सहवास का सुख नहीं उठाया है। जैसे गर्जते हुए बादलों को हवा बारंबार उड़ाकर छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार काल यहाँ जन्म लेने वाले प्राणियों को उनके रोने-चिल्लाने पर भी विनाश की आग में झोंक देता है। कोई बलवान् हों या दुर्बल, बड़ा हों या छोटा, उन सब प्राणियों को बुढ़ापा और मौत व्याघ्र की भाँति खा जाती है। इस प्रकार जब सभी प्राणी विनाशशील ही है, तब नित्य-स्वरूप जीवात्मा उन प्राणियों के लिये जन्म लेने पर हर्ष किसलिये माने और मर जाने पर शोक क्यों करे ? मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? कहाँ जाऊँगा ? किसके साथ मेरा क्या सम्बन्ध है ? किस स्थान में स्थित होकर कहाँ फिर जन्म लूँगा ? इस सब बातों को लेकर तुम किसलिये क्या शोक कर रहे हो ? जो शुभ और अशुभ कर्म करता है, उसके सिवा दूसरा कौन ऐसा है जो उन कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग और नरका का दर्शन एवं उपभोग करेगा; अत: शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए सब लोगों को दान और यज्ञ आदि सत्कर्म करते रहना चाहिये।
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