महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 32-45
विंशत्यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जैसे जिस खेत को जोतकर खूब मुलायम बना दिया गया हो और यथासमय उसे पानी से सींचा गया हो, वही बोये हुए बीज में अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार मनुष्यों का शुभ-अशुभ कर्म ही पुनर्जन्म का उत्पादन करता है। जैसे मिटृी के खपरे में या और किसी भी बर्तन में भूना गया बीज-बीज न रह जाने के कारण अंकुर उगाने योग्य खेत में पड़कर भी नहीं जमता है, उसी प्रकार मेरे संन्यासी गुरू भगवान् पंचशिख ने मुझे जो ज्ञान प्रदान किया है, वह निर्बीज है। इसलिये विषयों के क्षेत्र में अंकुरित नहीं होता है। मेरी बुद्धि किसी अनर्थ में अथवा भोगों के संग्रह में भी आसक्त नहीं होती है। स्त्री आदि के विषय में जो अनुराग और शत्रु आदि के विषय मे जो क्रोध होता है, वह व्यर्थ होने के कारण उसकी ओर मेरी बुद्धि की प्रवृत्ति नहीं होती है। जो मेरी दाहिनी बाँह पर चन्दन छिड़ के और जो बायीं बाँह को बँसूले से काटे तो ये दोनों ही मनुष्य मेरे लिये एक समान हैं। मैं आप्तकाम होकर सदा सुख का अनुभव करता हूँ। मेरी दृष्टि में मिटृी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण सब एक-से हैं । मैं आसक्तिरहित होकर राजा के पद पर प्रतिष्ठित हूँ । अत: अन्य त्रिदण्डी साधुओं से मेरा स्थान विशिष्ट है। अलौकिक जो ज्ञान है, अलौकिक जो संन्यास है तथा जो कर्मों का अलौकिक अनुष्ठान है अर्थात् निष्काम भाव से कर्मों का करना है—इन तीन प्रकार की निष्ठाओं को ही मोक्षवेत्ता विद्वानों ने मोक्ष का उपाय देखा और समझा है। मोक्षशास्त्र का ज्ञान रखने वाले श्रेणी के लोग कहते हैं कि ज्ञाननिष्ठा ही मोक्ष का साधन है तथा दूसरे सूक्ष्मदेर्शी यति लोग कर्मनिष्ठा को ही मुक्ति का उपाय बताते हैं। किंतु उन महात्मा पंचशिखाचार्य ने पूर्वोक्त केवल ज्ञान और केवल कर्म—इन दोनों पक्षों का परित्याग करके एक तीसरी निष्ठा बतायी है। यम, नियम, काम, द्वेष, परिग्रह, मान, दम्भ तथा स्नेह करके उनसे होने वाले लाभ और हानि में संन्यासी भी गृहस्थों के ही तुल्य है अर्थात् यम-नियम आदि का अभ्यास करने पर गृहस्थ भी मोक्षलाभ कर सकते हैं और कामना तथा द्वेष होने पर संन्यासी भी मुक्ति से वंचित हो सकते हैं। संन्यासी त्रिदण्ड आदि धारण करते हैं और गृहस्थ नरेश छत्र-चँवर आदि। यदि त्रिदण्ड धारण करने पर किसी को ज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्त हो सकता है तो छत्र आदि धारण करने पर दूसरे को उसी ज्ञान के द्वारा मोक्ष कैसे प्राप्त नहीं हो सकता ? क्योंकि प्रतिबन्ध का कारण परिग्रह दोनों के लिये समान है— एक त्रिदण्ड आदि का संग्रह करता है और दूसरा छत्र आदि का । अपने-अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये जिस मनुष्य को जिस-जिस साधन भूत वस्तु से प्रयोजन होता है, वे सभी अपना-अपना काम बनाने के लिये उन-उन वस्तुओं का आश्रय लेते हैं। जो ग्रहस्थ-आश्रम में दोष देखकर उसका परित्याग करके दूसरे आश्रम में चला जाता है, वह भी कुछ छोड़ता है और कुछ ग्रहण करता है; अत: उसे भी संगदोष से छुटकारा नहीं मिलता है। किसी का निग्रह और किसी पर अनुग्रह करना ही आधिपत्य (प्रभुत्व) कहलाता है। यह जैसे राजा में है, वैसे संन्यासी में भी है। इस दृष्टि से जब संन्यासी भी राजाओं के ही समान हैं, तब केवल वे ही मुक्त होते हैं—मानने का क्या कारण है ?
« पीछे | आगे » |