महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 60-74
विंशत्यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
आप मोक्षधर्म (संन्यास-आश्रम)-के अनुसार बर्ताव करती हैं और मैं गृहस्थ-आश्रम में स्थित हूँ; अत: आपके द्वारा यह दूसरा आश्रमसंकर नामक दोष का उत्पादन किया जा रहा है, जो अत्यन्त कष्टप्रद है। मैं यह भी नहीं जानता कि आप सगोत्रा हैं या असगोत्रा। इसी प्रकार आप भी मेरे विषय में कुछ नहीं जानतीं । अत: मुझ सगोत्र में प्रवेश करने के कारण आपके द्वारा तीसरा गोत्रसंकर नामक दोष उत्पन्न किया गया है। यदि आपके पति जीवित हैं अथवा कहीं परदेश में चल गये हैं तो आप परायी स्त्री होने के कारण मेरे लिये सर्वथा अगम्य हैं । ऐसी दशा में आपका यह बर्ताव धर्मसंकर नामक चौथा दोष है। आप कार्य-साधन की अपेक्षा रखकर अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान से युक्त हो ये सब न करने योग्य कार्य कर डालने को उद्यत हो गयी हैं। अथवा यदि आप स्वतन्त्र हैं तो कभी आपके द्वारा यदि कुछ शास्त्र का श्रवण किया गया हो तो आपने अपने ही दोष से वह सब व्यर्थ कर दिया है। आपका जो दोष छिपा हुआ था, उसे आपने स्वयं ही प्रकाशित कर दिया । इससे आप दुष्टा जान पड़ती हैं । आपकी दुष्टताका यह और चौथा चिह्न स्पष्ट दिखायी दे रहा है, जो हृदय की प्रीति पर आघात करने वाला है। आप अपनी विजय चाहती हैं । आपने केवल मुझे ही जीतने की इच्छा नहीं की है, अपितु यह जो मेरी सारी सभा बैठी है, इसे भी जीतना चाहती हैं। आप मेरे पक्ष की पराजय और अपने पक्ष की विजय के लिये इन माननीय सभासदों पर भी बारंबार अपनी दृष्टि फेंक रही हैं। आप अपनी असहिष्णुता जनित योगसम मृद्धि के मोह से मोहित हो विष और अमृत को एक करने के समान काम के साथ योग का सम्बन्ध जोड़ रही हैं। स्त्री और पुरूष जब एक-दूसरे को चाहते हों, उस समय उन्हें जो संयोग-सुखका लाभ होता है, वह अमृत के समान मधुर है । यदि अनुरक्त नारी को अनुरक्त पुरूष की प्राप्ति नहीं हुई तो वह दोष विषके समान भयंकर होता है । आम मेरा स्पर्श न करें । मेरे चरित्र को उत्तम और निष्कलंक समझें और अपने शास्त्र (संन्यास-धर्म)–का निरन्तर पालन करती रहें । आपने मेरे विषय में यह जानने की इच्छा की थी कि यह राजा जीवन्मुक्त है या नहीं । यह सारा भाव आपके हृदय में प्रच्छन्न भाव से स्थित था, अत: इस समय आप मुझसे इसको छिपा नहीं सकतीं। यदि आप अपने कार्य से या किसी दूसरे राजा के कार्य से यहाँ वेष बदलकर आयी हों तो अब आपके लिये यथार्थ बात को गुप्त रखना उचित नहीं है। मनुष्य को चाहिये कि वह किसी राजा के पास या किसी ब्राह्मण के निकट अथवा स्त्रीजनाचित पातिव्रत्य गुण से सम्पन्न किसी सती-साध्वी नारी के समीप छह्रावेष धारण करके न जाय; क्योकि ये राजा, ब्राह्माण और पतिव्रता सत्री उस छह्रा वेषधारी मनुष्य के धोखा देने पर उस पर कुपित हो उसका विनाश कर देते हैं । राजाओं का बल ऐश्वर्य है, वेदज्ञ ब्राह्माणों का बल वेद है तथा स्त्रियों का परम उत्तम बल रूप यौवन और सौभाग्य है। ये इन्हीं बलों से बलवान् होते हैं । अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि चाहने वाले पुरूष को इनके पास सरल भाव से जाना चाहिये; क्योंकि इनके पति किया हुआ कुटिल भाव विनाश का कारण बन सकता है।
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