महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 330 श्लोक 1-15

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त्रिंशदधिकत्रिशततम (330) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

शुकदेव को नारदजी का सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश

नारदजी कहते हैं- शुकदेव ! शास्त्र शोक को दूर करने वाला, शान्ति कारक और कल्याणमय है। जो अपने शोक का नाश करने के लिये शास्त्र का श्रवण करता है, वह उत्तम बुद्धि पाकर सुखी हो जाता है। शोक के सहस्त्रों और भय के सैंकड़ों स्थान हैं, जो प्रतिदिन मूढ़ पुरुषों पर ही अपना प्रभाव डालते हैं, विद्वान् पर नहीं। इसलिये अपने अनिष्ट का नाश करने के लिये मेरा यह उपदेश सुनो- यदि बुद्धि अपने वश में रहे तो सदा के लिये शोक का नाश हो जाता है। मन्दबुद्धि मनुष्य ही अप्रिय वस्तु की प्राप्ति और प्रिय वस्तु का वियोग होने पर मन-ही-मन दुखी होते हैं। जो वस्तु भूतकाल के गर्भ में छिप गयी (नष्ट हो गयी), उसके गुणों का समरण नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो आदर पूर्वक उसके गुणों का चिन्तन करत है, उसका उसके प्रति आसक्ति का बन्धन नहीं छूटता है। जहाँ चित्त की आसक्ति बढ़ने लगे, वहीं दोषदृष्टि करनी चाहिये और उसे अनिष्ट को बढ़ाने वाला समझना चाहिये। ऐसा करने पर उससे शीघ्र ही वैराग्य हो जाता है। जो बीती बात के लिये शोक करता है, उसे न र्तो अाि की प्राप्ति होती है न धर्म की और न यश की ही प्राप्ति होती है। वह उसके अभाव का अनुभव करके केवल दुःख ही उठाता है। उससे अभाव देर नहीं होता। सभी प्राणियों को उत्तम पदार्थों से संयोग और वियोग प्राप्त होते रहते हैं। किसी प्रकार एक पर ही यह शोक का अवसर आता हो, ऐसी बात नहीं है। जो मनुष्य भूतकाल में मरे हुए किसी व्यक्ति के लिये अथवा नष्ट हुई किसी वस्तु के लिये निरन्तर शोक करता है, वह एक दुःख से दूसरे दुःख को प्रापत होता है। इस प्रकार उसे दो अनर्थ भोगने पड़ते हैं। जो मनुष्य संसार में अपनी संतान की मृत्यु हुई देखकर भी अश्रुपात नहीं करते, वे ही धीर हैं। सभी वस्तुओं पर समीचीन भाव से दृष्टिपात या विचार करने पर किसी का भी आँसू बहाना युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता है। यदि कोई शारीरिक या मानसिक दुःख उपस्थित हो जाय और उसे दूर करने के लिये कोई यत्न किया जा सके अथवा किया हुआ यत्न काम न दे सके तो उसके लिये चिनता नहीं करनी चाहिये। दुःख दूर करने की सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका बार-बार चिन्तन न किया जाय। चिन्तन करने से वह घटता नहीं, बल्कि बढ़ता ही जाता है। इसलिये मानसिक दुःख को बुद्धि के द्वारा विचार से और शारीरिक कष्ट को औषध-सेवन द्वारा नष्ट करना चाहिये। शास्त्रज्ञान के प्रभाव से ही ऐसा होना सम्भव है। दुःख पड़ने पर बालकों की तरह रोना उचित नहीं है। रूप, यौवन, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य तथा प्रियजनों का सहपास- ये सब अनित्य हैं। विद्वान् पुरुष को इनमें आसक्त नहीं होना चाहिये। सारे देश पर आये हुए संकट के लिये किसी एक व्यक्ति को शोक करना उचित नहीं है। यदि उस संकट को टालने का कोई उपाय दिखलायी दे तो शोक छोड़कर उसे ही करना चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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