महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 335 श्लोक 13-31
पन्चत्रिंशदधिकत्रिशततम (335) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
युधिष्ठिर ने पूछा - पितामह ! श्वेतद्वीप में रहने वाले पुरुष इन्द्रिय, आहार तथा चेष्टा से रहित क्यों होते हैं ? उनके शरीर से सुन्दर गन्ध क्यों निकलती है ? उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई है तथा वे किस उत्तम गति करे प्रापत होते हैं ? भरतश्रेष्ठ ! इस लोक से मुक्त होने वाले पुरुषों का शास्त्रों में जो लक्षण बताया गया है, वैसा ही आपने श्वेतद्वीप के निवासियों का भी बताया है। इसलिये मुझे संदेह होता है, अतः मेरे इस संशय का निवारण कीजिये। इसे जानने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है। आप सम्पूर्ण ज्ञानमयी कथाओं में रस लेने वाले हैं और हम आपके शरणागत हैं।
भीष्मजी कहते हैं - राजन् ! यह कथा बहुत विस्तृत है। इसे मैंने अपने पिताजी के निकट सुना था। इस समय जो कथा तुम्हारे सामने कहनी है, वह सम्पूर्ण कथाओं की साभूत मानी गयी है। पूर्वकाल में मेरे पिता महाराज शान्तनु के पूछने पर मुनिश्रेष्ठ नारदजी ने उनसे यह कथा कही थी। उसी समय वहाँ मैंने भी इसे सुना था।। पहले की बात है, इस पृथ्वी पर एक उपरिचर नामक राजा राज्य करते थे। वे इन्द्र के मित्र और पापहारी भगवान् नारायण के विख्यात भक्त थे। वे धर्मात्मा तथा पिता के नित्य भक्त थे। आलस्य का उनमें सर्वथा अभाव था। पूर्वकाल में भगवान् नारायण के वर से उन्होंने भूमण्डल का साम्राज्य प्राप्त किया था। जो पहले भगवान् सूर्य के मुख से प्रकट हुआ था, उस वैष्णव शास्त्रोक्त विधि का आश्रय ले वे प्रथम तो देवेश्वर भगवान् नारायण का पूजन करते। फिर उनकी संवा से बचे हुए पदार्थों से पितरों का, पितरों की सेवा से बचे हुए पदार्थों से ब्राह्मणों का तथा अन्य आश्रितजनों का विभाग पूर्वक सत्कार करते थे। सबको देने के अनन्तर बचे हुए अन्न का भोजन करते थे, सत्य में तत्पर रहते और किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करते थे। वे आदि, मध्य और अन्त से रहित, अविनाशी, लोककर्ता देवदेव जनार्दन के भजन सम्पूर्ण भाव से लगे रहते थे। भगवान् नारायण में भक्ति रखने वाले उस शत्रुसूदन नरेश पर प्रसन्न हो देवराज इन्द्र उन्हें अपने साथ ऐ शय्या और एक आसन पर बिठाया करते थे। राजा उपरिचर ने अपने राज्य, धन, स्त्री और वाहन आदि सब उपकरणों को भगवान् की ही वस्तु समझकर सब उन्हीं को समर्पित कर रखा थ। राजन् ! वे सदा सावधान रहकर सकाम और नैमित्तिक यज्ञों की सम्पूर्ण क्रियाओं को वैष्णव शास्त्रोक्त विधि से सम्पनन किया करते थे। उन महात्मा नरेश के घर में पान्चरात्र शास्त्र के मुख्य-मुख्य विद्वान् सदा मौजूद रहते थे; और भगवान् को समर्पित किया हुआ प्रसाद अथवा भोज्य पदार्थ सबसे पहले वे ही भोजन करते थे। धर्म पूर्वक राज्य का शासन करते हुए उन शत्रुघाती नरेश ने न तो कभी असत्य भाषण किया और न कभी उनका मन ही बुरे विचारों से दूषित हुआ। अपने शरीर के द्वारा उन्होंने कभी छोटे-से-छोटा पाप भी नहीं किया था। (अब मैं जिस प्रकार तन्त्र, स्मृति और आगम की उत्पत्ति हुई है, उसे बताता हूँ, सुनो- ) मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलम्स्य, पुलह, क्रतु और महातेजस्वी वसिष्ठ- से सात प्रसिद्ध ऋषि चित्रशिखण्डी कहलाते हैं। ये जो चित्रशिखण्डी नाम से विख्यात सात ऋषि हैं, इन्होंने महागिरि मेरु पर एकमत होकर जिस उत्तम शास्त्र का प्रवचन एवं निर्माण किया, वह चारों वेदों के समान आदरणीय एवं प्रमाणभूत है। उसमें सात मुखों से प्रकट हुए उत्तम लोकधर्म की व्याख्या हुई है। ये सातों ऋषि प्रकृति के सात रूप हैं अर्थात् प्रजा के स्रष्टा हैं। आठवाँ ब्रह्मा है। ये सब मिलकर इस सम्पूर्ण जगत को धारण करते हैं। इन्हीं के द्वारा शास्त्र का प्राकट्य हुआ है। ये सब-के-सब ऋषि एकाग्रचित्त, जितेन्द्रिय, संयम परायण, भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता तथा सत्य-धर्म में ततपर रहने वाले हैं।
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