महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 340 श्लोक 1-17

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चत्वरिंशदधिकत्रिशततम (340) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वरिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

व्यासजी का अपने शिष्यों को भगपान् द्वारा ब्रह्मादि देवताओं से कहे हुए प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप धर्म के उपदेश का रहस्य बताना

शौनकजी ने कहा - सूतनन्दन ! वे प्रभावशालीवेदवेद्य भगवान नारायणदेव यज्ञों में प्रथम भाग ग्रहण करने वाले माने गये हैं तथा वे ही वेदों और वेदांगों के ज्ञाता परमेश्वर नित्य-निरन्तर यज्ञधारी (यज्ञकर्ता) भी बनाये गये हैं। एक ही भगवान में यज्ञों के कर्तृव्यऔर भोक्तृत्व दोनों कैसे सम्भव होते हैं ? सबके स्वामी क्षमाशील भगवान नारायण स्वयं तो निवृत्ति धर्म में ही स्थित हैं और उन्हीं सर्वशक्तिमान् भगपान् ने निवृत्तिधर्मों का विधान किया है। इस प्रकार निवृत्ति धर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने देवताओं को प्रवृत्तिधर्मों में अर्थात् यज्ञादि कर्मों में भाग लेने का अणिकारी क्यों बनाया ? तथा ऋषि-मुनियों को विषय से विरक्तबुद्धि और निवृत्तिधर्मपरायण किस कारण बनाया ? सूतनन्दन ! यह गूढ़ संदेह हमारे मन में सदा उठता रहता है, आप इसका निवारण कीजिये; क्योंकि आपने भगवान नारायण की बहुत सी धर्मसंगत कथाएँ सुन रखी हैं। सूतपुत्र ने कहा - मुनिश्रेष्ठ शौनक ! राजा जनमेजय ने बुद्धिमान व्यासजी के शिष्य वैशम्पायनजी के सम्मुख जो प्रश्न उपस्थित किया था, उस पुराणप्रोक्त विषय का मैं तुम्हारे सामने वर्णन करता हूँ। परम बुद्धिमान जनमेजय ने समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप इन परमात्मा नारायणदेव का महात्म्य सुनकर उनसे इस प्रकार कहा। जनमेजय बोले - मुने ! ब्रह्मा, देवगण, असुरगण तथा मनुष्यों सहित ये समसत लोक लौकिक अभ्युदय के लिये बताये गये कर्मों में ही आसक्त देखे जाते हैं। ब्रह्मन् ! परंतु आपने मोक्ष को परम शानित एवं परम सुखस्वरूप बताया है। जो मुक्त होते हैं, वे पुण्य और पाप से रहित हो सहस्त्रों किरणों से प्रकाशित होने वाले भगवान नारायणदेव में प्रवेश करते हैं, यह बात मैंने सुन रखी है। किंतु यह सनातन मोक्षधर्म अत्यन्त दुष्कर जान पड़ता है, जिसे छोड़कर सब देवता हव्य और कव्य के भोक्ता बन गये हैं। इसके सिवा ब्रह्मा, रुद्र और बलासुर का वध करने वाले सामथ्र्यशाली इन्द्र एवं सूर्य, तारापति चन्द्रमा, वायु, अग्नि, वरूण, आकाश, पृथ्वी तथा जो अवशिष्ट देवता बताये गये हैं, वे सब क्या परमात्मा के रख्े हुए अपने मोक्षमार्ग को नहीं चाहते हैं ? जिससे कि निश्चल, क्षयशून्य एवं अविनाशी मार्ग का आश्रय नहीं लेते हैं ? जो लोग नियत काल तक प्रापत होने वाले स्वर्गादि फलों को लक्ष्य करके प्रवृत्तिमार्ग का आश्रय लेते हैं, उन कर्मपरायण पुरुषों के लिये यही सबसे बढत्रा दोष है कि वे काल की सीमा में आबद्ध रहकर ही कर्म का फल भोग करते हैं। विप्रवर यह संशय मेरे हृदय में काँटे के समान चुभता है। आप इतिहास सुनाकर मेरे संदेह का निवारण करें। मेरे मन में इस विषय को जानने के लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। द्विजश्रेष्ठ ! देवताओं को यज्ञों में भाग लेने का अधिकारी क्यों बताया गया है , ब्रह्मन् ! स्वर्गलोक में निवास करने वाले देवताओं की ही यज्ञ में किसलिये पूजा की जाती है ? ब्राह्मणशिरोमणे ! जो यज्ञों में भाग ग्रहण करते हैं, वे देवता जब स्वयं महायज्ञों का अनूष्ठान करते हैं, तब किसको भाग समर्पित करते हैं ?

वैशम्पायनजी ने कहा - जनेश्वर ! तुमने बड़ा गूढ़ प्रश्न उपस्थित किया है। जिसने तपस्या नहीं की है तथा जो वेदों और पुराणों का विद्वान नहीं है, वह मनुष्य अनायास ही ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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