महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 132-142
द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
तदनन्तर देवताओं, ऋषियों औ ब्रह्माजी से अत्यन्त पूजित हो जगदीश्वर श्रीहरि ने रुद्रदेव से कहा- ‘प्रभो ! जो तुम्हें जानता है, वह मुझे भी जानता है। जो तुम्हारा अनुगामी है, वह मेरा भी अनुगामी है। हम दोनों में कुछ भी अनतर नहीं है। तुम्हारे मन में इसके विपरीत विचार नहीं होना चाहिये। ‘आज से तुम्हारे शूल का यह चिन्ह मेरे वक्ष-स्थल में ‘श्रीवत्स’ के नाम से प्रसिद्ध होगा और तुम्हारे कण्ठ में मेरे हाथ के चिन्ह से अंकित होने के कारण तुम भी ‘श्रीकण्ठ’ कहलाओगे’।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - पार्थ ! इस प्रकार अपने-अपने शरीर में एक दूसरे के द्वारा किये हुए ऐसे लक्षण (चिन्ह) उत्पन्न करके वे दोनों ऋषि रुद्रदेव के साथ अनुपम मैत्री स्थापित कर देवताओं को विदा करने के पश्चात् शान्तचित्त हो पूर्ववत् तपस्या करने लगे। इस प्रकार मैंने तुम्हें युद्ध में नारायण की विजय का वृत्तान्त बताया है। भारत ! मेरे जो गोपनीय नाम हैंख् उनकी व्युत्पत्ति मैंने बतायी है। ऋषियों ने मेरे जो नाम निश्चित किये हैं, उनका भी मैंने तुमसे वर्णन किया है। कुन्तीनन्दन ! इस प्रकार अनेक तरह के रूप धारण करके मैं इस पृथ्वी पर विचरता हूँ, ब्रह्मलोक में रहता हूँ और सनातन गोलोक में विहार करता हूँ। मुझसे सुरक्षित होकर तुमने महाभारत युद्ध में महान् विजय प्राप्त की है। कुन्तीनन्दन ! युद्ध उपस्थित होने पर जो पुरुष तुम्हारे आगे-आगे चलते थे, उन्हें तुम जटाजूटधारी देवाधिदेव रुद्र समझो। उन्हीं को मैंने तुमसे क्रोध द्वारा उत्पन्न बताया है। वे ही काल कहे गये हैं।। तुमने जिन शत्रुओं को मारा है, वे पहले ही रुद्रदेव के हाथ से मार दिये गये थे। उनका प्रभाव अप्रमेय है। तुम उन देवाधिदेव, उमावल्लभ विश्वनाथ, पापहारी एवं अविनाशी महादेवजी को संयतचित्त होकर नमस्कार करो।। धनंजय ! जिन्हें क्रोधज बताकर मैंने तुमसे बारंबार उनका परिचय दिया है और पहले तुमने जो कुछ सुन रक्खा है, वह सब उन रुद्रदेव का ही प्रभाव है।
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